ज़ियारत का मतलब है पवित्र जगहों या इमामों और अल्लाह के नेक बंदों की मज़ार पर जाना। इसका मक़सद है खुदा के क़रीब होना और अपने ईमान को मज़बूत करना।
आध्यात्मिक (रूहानी) पहलू
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ज़ियारत इंसान को रोज़मर्रा की भाग-दौड़ से अलग करके खुदा से जोड़ती है।
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यह मौका देती है कि हम अपने गुनाहों और ज़िंदगी पर सोचें और तौबा करें।
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इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.स.) ने कहा: "हमारी ज़ियारत करना, हमारे रास्ते को ज़िंदा करना है। और जो ऐसा करेगा, अल्लाह की रहमत पाएगा।"
इससे साफ़ है कि ज़ियारत से सिर्फ़ इंसान का ईमान मज़बूत नहीं होता, बल्कि इस्लामी मूल्यों की भी हिफ़ाज़त होती है।
सामाजिक पहलू
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जब लोग दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से मक्का, मदीना, कर्बला या मशहद जैसी जगहों पर जमा होते हैं, तो इससे मुसलमानों की एकता और भाईचारा दिखाई देता है।
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लोग आपस में मिलते हैं, एक-दूसरे से सीखते हैं और हौसला पाते हैं।
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लौटकर वे नई ताक़त और ईमान के साथ अपनी ज़िंदगी जारी रखते हैं।
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नहजुल बलाग़ा में हज़रत अली (अ.स.) कहते हैं: "अहल-ए-बैत की ज़ियारत गुनाहों की माफी और अल्लाह की रज़ा का सबब है।"
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शिया हदीस की किताबों में भी ज़ियारत की फ़ज़ीलत बार-बार बयान हुई है।
नतीजा
ज़ियारत सिर्फ़ सफ़र नहीं, बल्कि ईमान को ताज़ा करने और खुदा के करीब होने का ज़रिया है। यह इंसान की रूह को सुकून देती है और मुसलमानों को एक-दूसरे से जोड़ती है।
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