16 मई 2014 - 18:28
इस्लाम में औरत का महत्व (3)

शादी इंसानी ज़िन्दगी का महत्वपूर्ण मोड़ है जब दो इंसान अलग जेन्डर से होने के बावजूद एक दूसरे की ज़िन्दगी में सम्पूर्ण रूप से दख़ील हो जाते हैं और हर को दूसरे की ज़िम्मेदारी और उसके भावनाओं का पूरे तौर पर ख़्याल रखना पड़ता है। इख़्तिलाफ़ के आधार पर हालात और स्वभाव की मांगें भिन्न होती हैं लेकिन हर इंसान को दूसरे के भावनाओं के दृष्टिगत अपनी भावनाओं और एहसास की सम्पूर्ण क़ुरबानी देनी पड़ती है।

विवाहित ज़िन्दगी
शादी इंसानी ज़िन्दगी का महत्वपूर्ण मोड़ है जब दो इंसान अलग जेन्डर से होने के बावजूद एक दूसरे की ज़िन्दगी में सम्पूर्ण रूप से दख़ील हो जाते हैं और हर को दूसरे की ज़िम्मेदारी और उसके भावनाओं का पूरे तौर पर ख़्याल रखना पड़ता है। इख़्तिलाफ़ के आधार पर हालात और स्वभाव की मांगें भिन्न होती हैं लेकिन हर इंसान को दूसरे के भावनाओं के दृष्टिगत अपनी भावनाओं और एहसास की सम्पूर्ण क़ुरबानी देनी पड़ती है।
क़ुरआने मजीद ने इंसान को इत्मीनान दिलाया है कि यह कोई बाहरी सम्बंध नही है जिसकी वजह से उसे समस्याओं व मुश्किलों का सामना करना पड़े बल्कि यह एक प्राकृतिक मामला है जिसका इंतेज़ाम अल्लाह ने स्वभाव के अंदर रख दिया है और इंसान को उसकी तरफ़ ध्यान भी दिला दिया है। जैसा कि इरशाद होता है:
و من آيايه ان خلق لکم من انفسکم ازواجا لتسکنوا اليها و جعل بينکم موده و رحمه ان فی ذالک لآيات لقوم يتفکرون (سوره روم)
और अल्लाह की निशानियों में से यह भी है कि उसने तुम्हारा जोड़ा तुम ही में से पैदा किया है ताकि तुम्हे ज़िन्दगी का सुकून हासिल हो और फिर तुम्हारे बीच प्यार व रहमत क़रार दिया है इसमें फ़िक्र व विचार करने वालों के लिये बहुत सी निशानियाँ पाई जाती हैं।
बेशक जेन्डर में अंतर, हालात व माहौल में अंतर के बाद मुहब्बत व रहमत का पैदा हो जाना अल्लाह की क़ुदरत व रहमत की निशानी है जिसके लिये अनगिनत विभाग हैं और हर विभाग में बहुत सी निशानियाँ पाई जाती हैं। आयते करीमा में यह बात भी स्पष्ट कर दी गई है कि जोड़ा अल्लाह ने पैदा किया है यानी यह सम्पूर्ण बाहरी मसला नही है बल्कि दाख़िली तौर पर हर मर्द में औरत के लिये और हर औरत में मर्द के लिये यह क्षमता रख दी गई है ता कि एक दूसरे को अपना जोड़ा समझ कर बर्दाश्त कर सके और उससे नफ़रत व बेज़ारी का शिकार न हो और उसके बाद इस रिश्त में प्यार व रहमत का भी क़ानून बना दिया ताकि प्राकृतिक भावनाएं और मांगें पिसने न पाएँ। यह क़ुदरती सिस्टम है जिससे जुदा होना इंसान के लिये अनगिनत मुश्किलें पैदा कर सकता है चाहे इंसाने राजनीतिक हिसाब से इस अलगाव व जुदाई पर मजबूर हो या भावनाओं के कारण।
अल्लाह के दूत भी अपनी विवाहित ज़िन्दगी से परेशान रहे हैं तो उसका भी राज़ यही था कि उन पर सियासी और प्रचार के दृष्टिकोण से यह जरूरी था कि ऐसी औरतों से निकाह करें और उन मुश्किलों का सामना करें ताकि दीन को उन्नति हासिल हो सके और तबलीग व प्रचार का काम अंजाम पा सके। प्रकृति अपना काम बहरहाल कर रही थी यह और बात है कि वह शरई तौर पर ऐसी शादी पर मजबूर थे कि उनका एक कर्तव्य होता है कि दीन के प्रचार की राह में ज़हमते बर्दाश्त करें क्योकि तबलीग़ का रास्ता फूलों की सेज से नही गुज़रता है बल्कि कांटेदार वादियों से हो कर गुज़रता है।
उसके बाद क़ुरआने हकीम ने विवाहित ज़िन्दगी को मज़ीद बेहतर बनाने के लिये दोनो जोड़े की नई ज़िम्मेदारियों का ऐलान किया और इस बात को स्पष्ट कर दिया कि केवल मुहब्बत और रहमत से बात तमाम नही हो जाती है बल्कि कुछ उसके बाहरी मांगें भी हैं जिन्हे पूरा करना ज़रुरी है वर्ना दिला मुहब्बत व रहमत बे असर हो कर रह जायेगी और उसका कोई नतीजा हासिल न होगा।
ن لباس لکم انتم لباس لهن (سوره بقره آيت ۱۸۷)
औरतें तुम्हारे लिये लिबास हैं और तुम उनके लिये लिबास हो।
यानी तुम्हारा बाहरी और समाजी कर्तव्य यह है कि उनके मामलों की पर्दा पोशी करो और उनके हालात को उसी तरह ज़ाहिर न होने जिस तरह लिबास इंसान की बुराईयों को ज़ाहिर नही होने देता है। इसके अलावा तुम्हारा एक कर्तव्य यह भी है कि उन्हे जम़ाने के सर्द व गर्म से बचाते रहो और वह तुम्हे ज़माने की सर्द व गर्म हवाओं से सुरक्षित रखें कि यह विभिन्न हवाएँ किसी भी इंसान की ज़िन्दगी को ख़तरे में डाल सकती हैं और उसकी जान व प्रतिष्ठा को तबाह कर सकती हैं। दूसरी जगह इरशाद होता है:
نساءکم حرث لکم فاتوا حرثکم انی شءتم (سوره بقره)
तुम्हारी औरते तुम्हारी खेतियाँ हैं अतः अपनी खेतियों में जब और जिस तरह चाहो आ सकते हो। (शर्त यह है कि खेती बर्बाद न होने पाये।)
इस बेहतरीन जुमले से बहुत से मसलों को हल तलाश किया गया है। पहली बात तो यह कि बात को एक तरफ़ा रखा गया है और लिबास की तरह दोनो को ज़िम्मेदार नही बनाया गया है बल्कि मर्द को सम्बोधित किया गया है कि इस रुख़ से सारी ज़िम्मेदारी मर्द पर आती है और खेती की सुरक्षा का सारा इंतेज़ाब किसान पर होता है खेत का इसका कोई सम्बंध नही होता जबकि पर्दा पोशी और ज़माने के सर्द व गर्म बचाना दोनो की ज़िम्मेदारियों में शामिल था।
दूसरी तरफ़ इस बात को भी स्पष्ट कर दिया गया है कि औरत से सम्बंध में उसकी उस हैसियत का लिहाज़ बहरहाल ज़रुरी है कि वह खेत की हैसियत रखती है और खेत के बारे में किसान को यह इख़्तियार तो दिया गया जा सकता है कि फ़स्ल की मांगों को देख कर खेत को वैसे ही छोड़ दे और खेती न करे लेकिन यह इख़्तियार नही दिया जा सकता है कि उसे तबाह व बर्बाद कर दे और समय से पहले या फस्ल के होने से पहले ही फस्ल काटना शुरु कर दे इसलिये इसे खेती नही कहते बल्कि हलाकत कहते हैं और हलाकत किसी भी क़ीमत पर वैध नही क़रार दी जा सकती।

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