चूंकि इंसान का दिल एक लतीफ़ और मलकूती हकीकत है، जिसे मशहूर क़ौल में «القلب عرش الله الاعظم»"अल्लाह का महानतम अरश" कहा गया है, और हदीस क़ुदसी में ख़ुदा फ़रमाता है:
«मैं आसमानों और ज़मीन में नहीं समा सकता, लेकिन मोमिन के दिल में समा सकता हूँ» – इसलिए दिल को हर गैरे-ख़ुदा से पाक और साफ़ रखना इंसान की ज़िम्मेदारी है।
दिल अगर हर गंदगी से दूर होकर साफ़ आईने की तरह हो, तो वह इलाही नूर और अल्लाह के इल्हाम का मरकज़ बन सकता है।
दूसरे शब्दों में कहें तो, इंसान का दिल अल्लाह तआला का मक़ाम होना चाहिए, न कि शैतान की चरागाह। जैसा कि सूरह इसरा की आयत 53 में साफ़ कहा गया है:
«...إِنَّ الشَّيْطَانَ كَانَ لِلْإِنْسَانِ عَدُوًّا مُبِينًا»
शैतान इंसान का खुला दुश्मन है।
इसलिए इंसान को अपने दिल को यक़ीन दिलाना चाहिए कि उसका दिल अल्लाह पर खालिस ईमान और इलाही नूर के नुज़ूल का मक़ाम है। जब इंसान का दिल, दिमाग और बदन अल्लाह की याद और नेक अमल में मशग़ूल हो जाएं, तो नफ़्स-ए-अम्मारा और शैतान के लिए कोई जगह नहीं बचती।
अगर इंसान इस मक़ाम तक पहुँच जाए और अपनी सारी बाहरी व अंदरूनी ताक़तें क़ुर्ब-ए-इलाही के लिए लगा दे, तो वह असल तौहीद और कामिल इंसानियत की बुलंदी तक पहुँच जाएगा।
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