किसी भी दीन के सही या ग़लत होने के बारे में तीन मशहूर नज़रिये (दृष्टिकोण) पाए जाते हैं 1. अपने दीन के सही होने और बाकी सारे धर्मों के ग़लत होने पर आधारित आसमानी किताबों और नबियों का नज़रिया। इस नज़रिये के अनुसार पहले के कुछ दीन अपने समय में सही और सच्चे थे और जो लोग अभी भी उन्हीं धर्मों पर चल रहे हैं वह बाक़ी लोगों से कुछ अच्छे तो हो सकते हैं लेकिन मुक्ति और नजात सिर्फ उन्हीं के दीन को क़बूल करने से मिलेगी।2. बहुत से आरिफों और सूफियों का नज़रिया, हर दीन सच्चा और नजात पाने का रास्ता है आज के कुछ विचारक और थिंकर्स भी शब्द बदल कर इसी नज़रिये का प्रचार करते हैं कुछ का मानना है कि दीन तो वही सच्चा है जिस पर वह ख़ुद चल रहे हैं और दूसरे धर्मों की सिर्फ वह बातें सच्ची हैं जो उनके दीन में पाई जाती हैं अगरचे इस नज़रिये को पहले नज़रिये ही की एक शाखा मानना बेहतर होगा। 3. विधर्मियों, संदेहवादियों और नास्तिकों का नज़रिया कोई भी दीन सच्चा नही इसलिए कि प्रकृति से परे कुछ नहीं और अगर कुछ है भी तो हम उससे किसी भी तरह जुड़ नहीं सकते। इस आर्टिकिल में हम पहले नज़रिये पर चर्चा करेंगे। इब्राहीमी दीन और नजात यहूदी ईसाई और इस्लाम को इब्राहीमी या आसमान से उतरे दीन (REVEALED RELGONS) कहा जाता है जो पैग़म्बरों और आसमानी किताबों की छोड़ी निशानी हैं यह दीन जहाँ यह कहते हैं कि उनसे पहले के दीन में उन की सच्चाई बयान हुई और उनके आने की खबर दी गई है वहीँ ख़ुद को आख़री दीन मानते और अपने बाद धर्मों को रद्द करते हैं जूदाइज़्म (यहूदी धर्म) का कहना है कि उसके द्वारा अल्लाह का हजरत इब्राहीम (अ.) से किया वादा पूरा हुआ और ईसाई दीन उत्तराधिकार (SUPERSESSON) पर यक़ीन रखते हुए खुद को इस वादे का वारिस मानता और कहता है कि हज़रत ईसा और बाइबिल के आने की खुशखबरी तौरात और इन्जील में दी जा चुकी थी इस्लाम भी बनी इसराईल के नबियों और पहले की आसमानी किताबों की तरफ ध्यान देता है और साफ तौर पर कहता है कि उन किताबों में इस्लाम के पैगम्बर हज़रत मुहम्मद (स) के आने की खुशखबरी पाई जाती है। (सूरए आराफ़ आयत 1)। दूसरी तरफ यहूदी दीन का मानना है कि उसे खुदा की तरफ से खत्म नहीं किया गया और वैसे ही बाकी रखा है ईसाई दीन बाइबिल या दा न्यू टेस्टामेंट (THE NEW TESTAMENT- ईसाइयों के धार्मिक नियमों की किताब) के बाद किसी और किताब का इन्तेजार नहीं कर रहा है इसी तरह कुरआन (सूरए अहज़ाब आयत 40) और बहुत सी हदीसों में इस्लाम को आख़री दीन बताया गया है सारे मुसलमानों का उस पर पक्का यकीन है और उसे इस्लाम का बेसिक सिद्धांत मानते हैं यह सारे दीन मानते हैं कि उनसे पहले के दीन खुदा की तरफ से खत्म कर दिए गये हैं और बाद के दीन नक़ली हैं इस लिए नजात और मुक्ति सिर्फ उन्हीं को मानते हैं। यहूदी अपने दीन को अपनी कौम के लिए मखसूस मानते और उसी काप्रचार नहीं करते ज्यादा तर यहूदी अपने दीन का नहीं बल्कि जिओनवाद का प्रचार करते हैं ईसाई और मुसलमान अपने दीन का प्रचार करते हैं ईसाई के प्रचार को तबशीर या MISSION और इस्लाम के प्रचार को तबलीग या दावत कहा जाता है।इमामे खुमैनी का नज़रियाइमामे खुमैनी ने एक जगह हराम कमाई (मकासिब मुहर्रेमा) पर चर्चा के बीच दूसरे दीनों के मानने वालों के बारे में बड़ी महत्वपूर्ण बातें कही हैं जिनसे आप की सोच की गहराई का पता चलता है आपका मानना है कि दूसरे दीनों के मानने वाले दो तरह के हैं सार्वजनिक लोग और ख़ास लोग, आप लिखते हैं।आम लोगों के दिमाग़ में कोई ऐसी बात नहीं आती जो उनके दीन के खिलाफ़ जाती हो बल्कि आम मुसलमानों की तरह वह भी अपने दीन को सही और बाक़ी धर्मो को ग़लत मानते हैं जिस तरह हमारे आम लोग इस्लामी माहौल में पलने बढ़ने के कारण अपने दीन के सही और बाकी धर्मो के गलत होने पर यकीन रखते हैं और अपनी धार्मिक सोच से टकराने वाली कोई बात उनके दिमाग़ में नहीं आती इसी तरह बाकी धर्मो के आम लोग भी हैं दोनों में कोई फर्क नहीं है कोई भी किसी चीज का यकीन रखने वाला अपने यकीन के अनुसार चलने का हक़ रखता है ऐसा करने पर वह कोई अवहेलना (नाफ़रमानी) या गुनाह नहीं करता और न ही इस बात पर उसे सजा दी जा सकती है।(اما عوامھم فظاھر ،لعدم انقداح خلاف ماھم علیہ من المذاہب فی اذھانھم بل ھم قاطعون بصحۃ مذھبھم و بطلان سایر المذاھب نظیر عوام المسلمین۔فکما ان عوامنا عالمون بصحۃ مذھبھم وبطلان سایر مذاھب من غیر انقداح خلاف فی اذھانھم لاجل التلقین والنشر فی محیط الاسلام ،کذالک عوامھم من غِر فرق بینھما من ھذہ الجہۃ ۔والقاطع معذرو فی متابعتہ ولا یکون عاصیا وآثما ولا تصح عقوبتہ فی متابعتہ المکاسب المحرمہ)इमामे खुमैनी (र.ह) की निगाह में खास लोगों के दिमाग़ में भी चूंकि उनका अपना दीन जा बसा होता इसलिए उनमें और आम लोगों में कोई अंतर नहीं है लेकिन इनके लिए माफ़ी नही है शायद उसका कारण यह हो कि स्कालर्स और पढ़े लिखे आदमी की जिम्मेदारी अनपढ़ से ज्यादा है इमामे जाफरे सादिक (अ.) आलिम (ज्ञानी) का एक गुनाह माफ़ होने से पहले जाहिल के सत्तर गुनाह माफ़ कर दिये जाते हैं।( یغفر للجاھل سبعون ذنبا قبل ان یغفر للعالم ذنب واحد {اصول کافی ج ۱ ص ۴۷})दूसरे दीनों के मानने वाले खास लोगों के बारे में इमामे खुमैनी (र.ह) कहते हैंख़ास लोग भी आम तौर पर बचपन से सीखी बातों और कुफ्र के माहौल में पलने बढ़ने के कारण अपने घर्म पर पक्का यकीन रखते हैं अपनी सोच से टकराई कोई बात उनके सामने आये तो उसे बचपन से सच और हक के खिलाफ बनी अपनी अक्ल से रद्द कर देते हैं इस तरह एक मुसलमान आलिम की तरह यहूदी और ईसाई आलिम भी दूसरों की दलीलों को सही नहीं मानते बल्कि उनका गलत होना उनके नज़दीक जैसे ज़रूरी हो इसलिए कि वह अपने दीन को दो और दो चार की तरह सही मानते और उसके खिलाफ़ किसी बात को सोचते तक नहीं।(اما غیر عوامھم فالغالب فیھم انہ بواسطۃ التلقینات من اول الطفو لیۃ والنشر فی محیط الکفر صاروا جازمین و معتقدین بمذاھبھم الباطلۃ بحیث کل ما ورد علی خلافھا ردوھا بعقولھم المجھولۃ علی خلاف الحق من بدو نشرھم ،فالعالم الیھودی والنصرانی ،کالعالم المسلم ،لا یری حجۃ الغیر صحیحۃ و صار بطلانھا کاالضروری لہ ،لکون صحۃ مذھبہ ضروریۃ لا یحتمل خلافہ ۔ 0 المکاسب المحرمۃ ،ص ۱۳۳)हाँ उनमें से जिसके दिमाग में यह बात आये कि उसके धर्म के खिलाफ़ कोई बात सही है लेकिन हटधर्मी और कट्टरपन्थी की वजह से उसकी दलीलों और तर्कों पर गौर न करे तो वह गुनाहगार है जैसा कि इस्लाम के शुरू में यहूदी और ईसाई आलिम कर रहे थे।(نعم فیھا من یکون مقصرا لو احتمل خلاف مذ ھبۃ وترک النظر الیِ حجۃ عنادا او تقصیرا کما کان فی بدو الاسلام فی علما الیھودی و النصاری من کان کذالک )आखिर में इमामे खुमैनी (र.ह) ने अपने नज़रिये का यूँ खुलासा किया हैः खुलासा यह कि मुसलमान जाहिलों की तरह का काफिर भी कुछ कासिर व कोताही करने वाला (किसी भी मज़हब के मानने वाले वह आम व ख़ास लोग जो बचपने से सीखी बातों और अपने दीन के माहौल में पलने बढ़ने के कारण अपने दीन पर पक्का यक़ीन रखते हैं और उसके ख़िलाफ़ कोई बात उनके दिमाग़ में नहीं आती है और अगर आती भी तो उसे बचपने से हक़ और सच के ख़िलाफ़ तय्यार हुई अपनी अक़्ल से रद्द कर देते हैं यह लोग क़ासिर हैं यानि ग़लत तो कर रहे हैं लेकिन जानबूझ के नहीं) हैं और कुछ मुकस्सिर व दोषी (अपने दीन के ख़िलाफ़ बात और उसकी दलील सही लगती है लेकिन हठधर्मी करते हैं और उसे नहीं मानते हैं, यह लोग मुक़स्सिर हैं यानि जानबूझ कर ग़ल्ती करते हैं)।(इस्लाम के अनुसार) उसकी सभी जिम्मेदारियां चाहे उनका सम्बन्ध दीन की जड़ों (उसूल) से हो या शाखाओं (फुरू) से ,आलिम ,जाहिल क़ासिर और मुक़स्सिर सभी पर बराबर से लागू होती है, काफ़िर जब दलीलों से जान जायें कि उनकी सोच गलत है (उसके बावजूद उस पर बनें रहें) तो उन्हें दोनों ही तरह की जिम्मेदारियां न निभाने की सज़ा मिलेगी। जि
13 अक्तूबर 2012 - 20:30
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यहूदी ईसाई और इस्लाम को इब्राहीमी या आसमान से उतरे दीन (REVEALED RELGONS) कहा जाता है जो पैग़म्बरों और आसमानी किताबों की छोड़ी निशानी हैं यह दीन जहाँ यह कहते हैं कि उनसे पहले के दीन में उन की सच्चाई बयान हुई और उनके आने की खबर दी गई है वहीँ ख़ुद को आख़री दीन मानते और अपने बाद धर्मों को रद्द करते हैं