23 मई 2023 - 10:20
ख़ुद संयुक्त राष्ट्र महासचिव कहते हैं कि सुरक्षा परिषद में सुधार का समय आ गया है, लेकिन सुधार से उनका तात्पर्य क्या है?

संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव एंटोनियो गुटेरस ने एक बयान दिया कि अब समय आ गया है कि सुरक्षा परिषद और ब्रिडन वुड्ज़ में आज की दुनिया से तालमेल बिठाने के लिए सुधार किए जाएं।

गुटेरस के इस बयान में कई बिंदु हैं जिन्हें रेखांकित करने की ज़रूरत है। एक तो उन्होंने यह कहा कि दोनों संस्थाओं ने 1945 की ताक़त के संबंधों की तस्वीर अब तक पेश की मगर अब इनमें सुधार का समय आ गया है।

गुटेरस ने अपने इस बयान में दो घटनाओं का मुख्य रूप से हवाला दिया। एक तो उन्होंने कोरोना वायरस की महामारी का ज़िक्र किया और दूसरे यूक्रेन की जंग का नाम लिया। इस परिदृष्य में उनका कहना था कि विश्व आर्थिक व्यवस्था अब पुरानी  नाकारा और ग़ैर न्यायपूर्ण हो चली है और अपना बुनियादी काम पूरा नहीं कर पा रही है।

गुटेरस की यह बात तो सही है कि विश्व व्यवस्था पुरानी और अन्यायपूर्ण हो चली है लेकिन उन्होंने जो उदाहरण दिए उसे देखते हुए लगता है कि गुटेरस सही संदर्भ बताने के बजाए अधूरी बात कर रहे हैं। इराक़ युद्ध, अफ़ग़ानिस्तान युद्ध, सीरिया का संकट, फ़िलिस्तीन पर इस्राईल का क़ब्ज़ा और आए दिन के हमले, लीबिया की स्थिति, यमन के हालात यह सारी चीज़ें ज़ाहिर करती हैं कि विश्व व्यवस्था में बदलाव की ज़रूरत है और इन संकटों में अधिकतर संकट वो हैं जिनमें पश्चिमी देशों विशेष रूप से अमरीका की बड़ी विनाशकारी भूमिका रही है।

एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि आर्थिक और साथ ही सामरिक शक्ति का संतुलन एशिया की तरफ़ झुकता जा रहा है।

आईएमएफ़ ने जी7 अर्थ व्यवस्थाओं के बारे में आंकड़ा दिया कि तीस साल में यह अर्थ व्यवस्थाएं सिकुड़ती गई हैं और अब दुनिया की जीडीपी में इनकी भागीदारी 29.9 प्रतिशत रह गई है। जबकि 1980 में यह दर 50.7 प्रतिशत थी।

आईएमएफ़ के चीफ़ इकानामिस्ट और रिसर्च डिपार्टमेंट के डायरेक्टर पियर ओलीवर गोरेंचास ने कहा कि चीन और भारत वर्ष 2023 में विश्व इकानामी में अपना 50 प्रतिशत हिस्सा डालेंगे।

ब्रिटन वुड्ज़ मानीटरी सिस्टम 1944 के समझौते के बद तैयार किया गया था जिसमें यह तय हुआ था कि सोने को अंतर्राष्ट्रीय पैमाने पर तौर पर इस्तेमाल करते हुए करंसी की निर्धारित एक्सचेंज दर बनाई जा सकती है। इस सिस्टम ने 44 देशों के बीच व्यापारिक सिस्टम को रेगुलेट किया और यह 1945 से 1973 तक जारी रहा मगर फिर अमरीकी डालर अपनी वैल्यु बाक़ी रखने में नाकाम हो गया तो यह सिस्टम भी नाकाम हो गया।

अब नए हालात की जो मांग है उसमें अमरीका के लिए अपनी सुपरमेसी बाक़ी रख पाना मुमकिन नहीं है और इसके लक्षण साफ़ दिखाई देने लगे है।

इसलिए अगर अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं में बदलाव होता है तो ज़रूरी होगा कि नई परिस्थितियों को बारीकी से ध्यान में रखते हुए सुधार किया जाए वरना अगर सिर्फ़ दिखावे के लिए और पश्चिमी ताक़तों के दबाव में बदलाव हुआ तो वह केवल नाम का बदलाव होगा।  

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