12 मई 2020 - 14:42
रूठे सैंया मनाऊं कैसे? अमरीका के दबाव में किस तरफ भागेगा सऊदी अरब? अलमयादीन ने बताया सऊदी अरब का भविष्य

लेबनान के अलमयादीनी टीवी चैनल की वेबसाइट पर क़ासिम इज़्ज़ुद्दीन ने अमरीका और सऊदी अरब के संबंधों में बड़े बदलाव का रोचक जायज़ा लिया है।

सऊदी अरब से पेट्रयोट मिसाइल सिस्टम और अपने सैनिकों को बाहर निकालने का अमरीकी फैसला अमरका और सऊदी अरब के बीच  सहयोग की रणनीति में बहुत बड़ा परिवर्तन है जो अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति रोज़ वेल्ट और सऊदी शासक अब्दुल अज़ीज़ के बीच लगभग 70 साल पहले तेल के बदले सुरक्षा के नियम पर हुए एक समझौते का परिणाम थी।

अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने अपना सत्ताकाल, सुरक्षा के बदले धन की नीति से शुरु किया और इस बार में बार बार खुल कर बयान भी देते रहे लेकिन अब जब कि ईरान की तरफ से खतरा कम होने के बहाने अमरीका पेट्रियाट मिसाइल कहीं और लगाने की बात कर रहा तो वास्तव में यह इस बात का सुबूत है कि अमरीका, सऊदी अरब का समर्थन कम कर रहा है और यह भी हो सकता है कि कि अमरीकी विदेशमंत्री पोम्पियो ने जो विशेष तौर पर यह कहा है कि इसका मतलब सऊदी अरब की मदद कम करना है तो दर अस्ल वह इसके विपरीत बात कहना चाहते हों और वह दुनिया को यह बता रहे हों कि सऊदी अरब और अमरीका के बीच दूरी हो चुकी है।

सऊदी अरब को डरा कर पैसा वसूलने की ट्रम्प की नीति इतनी ही प्रभावी रही है कि अब लगता है कि ट्रम्प सऊदी अरब और यूएई की तरह युरोपीय देशों और दक्षिणी कोरिया और जापान से भी सुरक्षा के बदले धन की रणनीति पर बात करें।

ट्रम्प चुनाव में विजय चाहते हैं और इस अभियान की सफलता के लिए उन्हें शेयर मार्केट, बैंकों और बड़ी बड़ी कंपनियों का सहयोग चाहिए जिन्हें कोरोना के दौरान काफी नुक़सान पहुंचा है और अब ट्रम्प उन्हें खुश करने के लिए उन्हें मोटी रिश्वत देने पर मजबूर हैं। इसके लिए ज़ाहिर सी बात है ट्रम्प यह रक़म सऊदी अरब जैसे देशों पर दबाव डाल कर निकालना चाहेंगे।  

ट्रम्प, अमरीका में कोरोना की वजह से बंद होने वाली आर्थिक गतिविधियां फिर से शुरु कराना चाहते हैं लेकिन समस्या यह है कि अगर अमरीका में काम फिर से शुरु भी हो गया तब भी दो साल लगातार काम जारी रहने के बाद भी हालात सामान्य होना मुश्किल है।

इन परिस्थितियों में अमरीका की अर्थ व्यवस्था और छोटी और कमज़ोर कंपनियों को बचाना काफी कठिन होगा इस लिए कोरोना की वजह से करोड़ों बेरोज़गारो को संभालना काफी मुश्किल होगा।

इन हालात में चीन के साथ राजनीतिक व आर्थिक टकराव की आशंका बढ़ जाएगी। उस चीन के साथ जो अमरीका और युरोप को अपने सामान के समुद्र में डुबो सकता है। इसी तरह रूस भी अपने चीनी घटक के साथ मिल कर पश्चिमी युरोप में पैठ बना सकता है और नेटो का काम ही तमाम कर सकता है। यही वह चीज़ है जिसकी वजह से अमरीका सऊदी अरब और फार्स की खाड़ी के अन्य देशों की ओर से नज़र फिर का पूरब पर ध्यान देना चाहता है।

 जैसे जैसे दक्षिणी चीन सागर में अमरीका की उपस्थिति बढ़ेगी, शांत ड्रेगन की नीति भी बदल जाएगी और आर्थिक टकराव बड़ी तेज़ी से राजनीतिक टकराव में बदल जाएगा जिनमें हथियारों का भी प्रयोग किया जा सकता है। दूसरी ओर यह महसूस हो रहा है कि पोम्पियो और उनके जैसे वाइट हाउस के अन्य अधिकारी बाल्टिक सागर और रूस के आस पास सैन्य टकराव की स्थिति बनाने की कोशिश में हैं।

रूसी राष्ट्रपति अमरीका की मध्यम दूरी की मिसाइलों के जवाब में परमाणु शक्ति के प्रयोग की धमकी देते हैं। सन 1987 में हुए मिसाइल समझौते से ट्रम्प के निकलने के बाद पुतीन का मानना है कि रूस एटमी हमले में आगे रहेगा। सन 2018 से पिछले सप्ताह तक पुतीन ने बार बार दोहराया है कि रूस , अमरीका के निकट लगाए जाने वाले अपने मिसाइलों या तेज़ी से काम करने वाले परमाणु मिसाइलो द्वारा मैदान में उतरेगा और या तो दोनों की विकल्पों का प्रयोग करेगा।  

इन हालात में और खींच तान में सऊदी अरब से अमरीका ने  “ स्ट्रेटजिक भागीदारी” का तमगा वापस ले लिया है क्योंकि अब तो सऊदी अरब का तेल भी अमरीकी तेल के लिए हानिकारक हो गया है जिसकी वजह से अमरीका की तेल कंपनियों और अमरीकी कांग्रेस में चिंता की लहर दौड़ गयी है।

इन हालात में तेल पर जी रहे सऊदी अरब की हालत बेहद खराब है और एक बड़ा आर्थिक संकट उसके दरवाज़े पर दस्तक दे रहा है। 500 अरब डालर की बिन सलमान का “ न्यूम” का सपना भी चकनाचूर हो चुका है। यमन का खर्चा और पैसे से राजनीतिक समर्थन प्राप्त करने की बिन सलमान की नीति,  सऊदी अरब की दौलत और आरामको पर क़ब्ज़े की ट्रम्प की इच्छा से मेल नहीं खाती।

       अब भी उम्मीद है कि शायद सऊदी क्राउन प्रिंस क़र्ज़ों में डूबने और सऊदी अरब की बची खुची दौलत बर्बाद करने से पहली तबाही लिखने वाला अपना क़लम रोक लें । क्योंकि रेगिस्तानों रहने वाले वाले प्राचीन काल के बुद्धु अरब शासक या मारते हैं या मारे जाते हैं।