AhlolBayt News Agency (ABNA)

source : parstoday
सोमवार

15 फ़रवरी 2021

11:24:34 am
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दुनिया का एक ऐसा आंदोलन जो 10 वर्षों से है जारी, जान गई, जेल गए, और गई नागरिकता, लेकिन कम नहीं हुआ हौसला, बहरैन की जनता को सलाम करती दुनिया

दस साल पहले जब अरब दुनिया में बदलाव की हवा चली तो बहरैन में भी लोग इस आस में सड़कों पर निकले थे कि इस देश के तानाशाह और अत्याचारी शासन को उखाड़ फेंकेंगे, लेकिन इस देश के तानाशाह शासक आंदोलन को कुचलने के लिए सऊदी अरब की उंगली पकड़कर अमेरिका के सामने नमस्तक हो गए।

दस वर्षों से लगातार बहरैन की जनता इस देश के तनाशाह और अत्याचारी आले ख़लीफ़ा शासन के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रही है। वहीं दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र होने का दावा करने वाला अमेरिका तनाशाह अरब शासकों के हाथों बिक गया और फिर खेल शुरू हुआ बहरैन के जनांदोलन को कुचलने का। बहरैन की अत्याचारी सरकार के ख़िलाफ़ होने वाले प्रदर्शनों से जुड़े कार्यकर्ता कहते हैं कि अरब देशों में बदलाव की लहर को लेकर होने वाले जनांदोलनों में सबसे ज़्यादा शांतिपूर्ण बहरैन का आंदोलन था जो आज तक चल रहा है। जबकि आले ख़लीफ़ा शासन ने प्रदर्शनों में हिस्सा लेने वाले आंदोलनकारियों के ख़िलाफ़ हर तरह के हथकंड़े अपनाए, अत्याचार किए और यहां तक कि उनकी नागरिकता भी छीन ली, लेकिन आंदोलनकारियों के ज़ज़्बे को कम नहीं कर पाया। हालांकि बहुत से कार्यकर्ता और प्रदर्शनकारी बहरैन से निकल गए और निर्वासन में रह रहे हैं, लेकिन उनकी उम्मीद अभी भी बाक़ी है उन्हें विश्वास है कि बहरैनी जनता का शांतिपूर्ण आंदोलन ज़रूर कामयाब होगा और वहां के तानाशाह आले ख़ालीफ़ा का अंजाम भी दुनिया के दूसरे तानाशाहों जैसा ही होगा।

बहरैन में 14 फरवरी 2011 को लाखों की संख्या में लोग सड़कों पर निकल आए थे और कई हफ्तों तक प्रदर्शन चलता रहा। मिस्र, सीरिया, ट्यूनीशिया और यमन में सत्ता विरोधी लहर ने बहरैन के प्रदर्शनकारियों के हौसले भी बुलंद कर दिए। प्रदर्शनों के दौरान नजीहा सईद एक फ्रेंच टीवी के लिए रिपोर्टिंग कर रही थीं। वह बताती है, "बड़ा ही अद्भुत नज़ारा था।" राजधानी मनाना में पर्ल गोलचक्कर के आसपास लोग जमा थे। यह शहर का एक अहम प्रतीक था जिसे बाद में आले ख़लीफ़ा शासन ने ढहा दिया। वह बताती हैं, "मैंने पहली बार ऐसा कुछ देखा था। लोग भूल गए थे कि वे एक राजशाही में रह रहे हैं जिसे दूसरी ताकतवर शाही सत्ताओं का समर्थन प्राप्त है।" बहरैन में लगातार बढ़ते प्रदर्शनों को देख इस देश के आले ख़लीफ़ा शासन के पसीने छूटने लगे थे, अपने पैरों के नीचे से ज़मीन खिसकती देख इस शासन ने बिना देर किए सऊदी अरब और अमेरिका मदद की गुहार लगाई।

सऊदी अरब और अमेरिका का साथ मिलते ही आले ख़लीफ़ा शासन के सुरक्षा बलों ने आंदोलनकारियों को तितर बितर करना शुरू कर दिया। प्रदर्शनकारिीयों पर गोलियां बरसाई गईं, आंसू गैस के गोले दाग़े गए और रबड़ की गोलियां चलाई गईं। एक ओर बहरैन की जनता ने शांतिपूर्ण आंदोलन करने की सौगंध खा रखी थी तो दूसरी ओर तानाशाह आले ख़लीफ़ा शासन ने अमेरिकी की हरी झंड़ी के बाद सऊदी अरब की मदद से आंदोलनकारियों को कुचलने का मन बना लिया था। प्रदर्शनकारियों को दबाने के लिए विदेशी सैनिकों को बुलाया गया और फिर दुनिया की कथित शांति दूतों के सामने बहरैन में शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने वाले आंदोलनकारियों को दमन आरंभ हुआ जो 2021 में जारी है। आले ख़लीफ़ा ने चुन-चुनकर आंदोलनकारियों के ख़िलाफ़ कार्यवाही करना आरंभ किया और देखथे ही देखते इस देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी अलवेफ़ाक़ के प्रमुख अली सलमान सहित सभी को जेल में डाल दिया गया।

बहरैन के आले ख़लीफ़ा शासन ने सऊदी अरब से सीख लेते हुए अपने ही देश के लोगों को बांटना शुरू कर दिया। बहरैन की तानाशाह सरकार ने 2011 के अंसतोष के लिए सबसे पहले ईरान को ज़िम्मेदार ठहराया। इसका तर्क यह दिया क्योंकि बहरैन में शिया समुदाय की संख्या सबसे ज़्यादा है इसलिए ईरान के इशारे पर इस देश की जनता आले ख़लीफ़ा शासन को उखाड़ना चाहती है। जबकि इस्लामी गणतंत्र ईरान ने आरंभ से ही ऐसे सभी आरोपों को खारिज करते हुए साफ़ कर दिया था कि वह किसी भी देश के आंतरिक मामलों में कभी भी हस्तक्षेप नहीं करता है। वहीं बहरैन के अधिकारियों ने 2011 के बाद से न सिर्फ इस देश की शिया जनता, राजनीतिक समूहों और धार्मिक नेताओं को निशाना बनाया है बल्कि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और इंटरनेट पर सरकार के ख़िलाफ़ लिखने वालों को भी प्रताड़ित किया है। सरकार के आलोचकों पर मुकदमे आम बात हो गई है। राजनीतिक पार्टियों पर बैन लगा दिया गया है। बहरैन से निष्पक्ष रिपोर्टिंग कर पाना लगभग असंभव हो गया है।

वैसे तो बहरैन का संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। लेकिन सिर्फ एक ट्वीट की बदौलत आपको जेल में डाला जा सकता है। नाम गोपनीय रखने की शर्त पर एक व्यक्ति ने बताया कि उसे दो हफ्ते के लिए इसलिए जेल में डाल दिया गया कि उसने पवित्र क़ुरआन की एक आयत सोशल मीडिया पर पोस्ट की थी। बहरैनी अधिकारियों का कहना है कि इस आयत के ज़रिए इस देश के प्रधानमंत्री के निधन पर ख़ुशी जताई गई थी। जेल में बंद एक अन्य व्यक्ति को राजनीतिक कविता पोस्ट करने की सज़ा दी गई। सज़ा काटने वाले 47 वर्षीय व्यक्ति ने कहा, "2011 के बाद हमारा देश आगे नहीं बल्कि पीछे की तरफ़ गया है। अब बहरैन में विपक्ष का काम केवल यही रह गया है कि  जेलों में क़ैद आम लोगों की रिहाई के लिए दिखावटी अदालतों के चक्कर  लगाते रहें। वहीं संयुक्त राष्ट्र संघ सहित वे सभी देश जो दुनिया के सभी देशों में लोकतांत्रिक व्यवस्था के समर्थक हैं वे बहरैन में एक तानाशाह शासन के हाथों लोकतंत्र की मांग करने वालों के दमन की क़ीमत वसूल रहे हैं।