कभी-कभी निफाक़ और फ़रेब का चेहरा तब तक बेनकाब नहीं होता जब तक खून न बहाया जाए या शहादत न हो।
अगर हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) कर्बला के मैदान में बेदर्दी के साथ शहीद न हुए होते, और हज़रत ज़ैनब (स.अ. ) और इमाम ज़ैनुल-आबिदीन (अ.स.) ने कूफ़ा और शाम में सच्चाई और जागरूकता फैलाने वाले खुतबे न दिए होते, तो सच्चाई लोगों के सामने जाहिर न होती, और बनी उमय्या की आंतरि गंदगी और उनके बेईमानी से भरे चेहरे बेनकाब न होते।
कभी-कभी सच्चाई को उजागर करने और मुनफ़िक़ों को रुस्वा करने के लिए अपनी जान और खून कुर्बान करना ज़रूरी हो जाता है। या कम से कम, इल्म से दूर जाहिल और नादान जनता तक शहीदों के खून का संदेश पहुँचाना ज़रूरी होता है।
यह बुद्धिमान, जागरूक और धार्मिक लोगों की जिम्मेदारी है जिसे " जिहादे तबयीन" या "स्पष्टीकरण जिहाद" कहा जाता है, ताकि दुश्मन के झूठे प्रचार के पीछे सच्चाई छिप न जाए।
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