अल्लाह तआला इल्म वाला और हिकमत वाला है। हिकमत वाले का कोई भी काम, चाहे वो फ़र्ज़ से जुड़ा हो या हराम से, दोनों ही सूरतों में हिकमत से खाली नहीं हो सकता। जिस तरह अल्लाह तआला ने पिछली क़ौमों पर रोज़ा फ़र्ज़ किया था, उसी तरह उसने मुसलमानों पर भी रोज़ा फ़र्ज़ किया है।
बेशक, यह इबादत, इल्म, हिकमत और फलसफे से खाली नहीं है।
फ़रायज़ के साथ-साथ कुछ लाभ भी हैं जिन्हें कभी-कभी इंसान समझ पाता है और कभी-कभी इन तथ्यों की तह तक पहुंचकर इंसान की अक़्ल हैरान रह जाती है।
इसी तरह हुरमत और हराम के पीछे भी ऐसे-ऐसे नुकसान छिपे हैं कि कभी-कभी वैज्ञानिक या अन्य इल्म भी उनमें से कुछ को पहचानने में सफल होते हैं, और कई मामलों में यह सभी इल्म, हिकमत और विज्ञान भी असमर्थ नजर आते हैं।
अल्लाह ने मनुष्य को कमाल के लिए बनाया है। पूर्णता और कमाल प्राप्त करने की इच्छा हर इंसान के स्वभाव में निहित होती है। इस बिंदु तक पहुंचने के लिए जहां कई चीजें करनी पड़ती हैं, वहीं कई चीजों का त्याग भी करना पड़ता है। मनुष्य जन्म के समय से ही खाने-पीने से परिचित होता है, जबकि रोज़े की स्थिति में व्यक्ति को इससे परहेज करना पड़ता है। साथ ही
कुछ अन्य मुबाह काम से भी रोक दिया जाता है इन सबके माध्यम से मना की गयी बातों को त्यागने का अभ्यास होता है, तथा यह अभ्यास पूरे एक महीने तक जारी रहता है, ताकि इसके माध्यम से व्यक्ति साल भर पापों से बचने का आदी हो जाए।
सामान्य अवस्था में व्यक्ति अपने जीवन के कामों में व्यस्त रहता है, सबको अपनी अपनी पड़ी होती है । गरीब अपना समय अपनी गरीबी में बिताता है, जबकि अमीर अपना धन कमाने में व्यस्त रहता है। जिस व्यक्ति ने जीवन में कभी किसी कठिनाई का सामना न किया हो, वह कठिनाइयों के बारे में क्या जानता होगा? भूख और प्यास की गंभीरता का क्या अंदाजा उस व्यक्ति को हो सकता है जिसने कभी इनका स्वाद नहीं चखा हो? सत्य और असत्य की पहचान परीक्षा के समय ही होती है। रोज़े का अर्थ केवल भूखा-प्यासा रहना नहीं है, बल्कि रोज़े की अवस्था में व्यक्ति को अपने पूरे अस्तित्व को नियंत्रण में रखना होता है।
जुबान का रोज़ा झूठ न बोलना, इल्ज़ाम और चुगली से बचना है, आँखों का रोज़ा किसी पराये की तरफ़ न देखना है, हाथों का रोज़ा किसी के अधिकार को न छीनना है। पैरों का रोज़ा किसी अन्याय की तरफ न जाना है। रमज़ान का मुबारक महीना आत्म-प्रशिक्षण, आत्मा की शुद्धि, तौबा और क्षमा मांगने, ज़िक्र, नमाज़ और दुआ, गरीबों और ज़रूरतमंदों की मुश्किलों को महसूस करने, उनकी मुश्किलों को समझने और उन्हें दूर करने के लिए हर संभव प्रयास करने का महीना है।
रोज़ा अहसास का नाम है। जैसे अगर किसी व्यक्ति की इंद्रियाँ काम करना बंद कर दें तो उसके शरीर पर चाहे कितने भी घाव लग जाएँ, उसे कितनी भी पीड़ा हो, उस व्यक्ति को उसका बिल्कुल भी एहसास नहीं होता। इसी तरह अगर किसी व्यक्ति का विवेक मर जाए उसका ज़मीर मुर्दा हो जाए और उसकी आत्मा दूषित हो जाए तो उसके अंदर अहसास खत्म हो जाता है। चाहे उसके सामने भूख-प्यास से एक छोटा-सा मासूम बच्चा भी मर जाए, उसे इसकी परवाह नहीं। चाहे एक अनाथ बच्चे की माँ गरीबी और अभाव के कारण उसके सामने कितना भी रोए, उसकी अंतरात्मा उसका ज़मीर उसकी मदद के लिए एक हल्की-सी आवाज़ भी नहीं देता।
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