23 मार्च 2025 - 16:14
हज़रत अली की शहादत, हर ज़माने का ग़म

हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा ने इस तारीख़ से 25 बरस पहले बीमारी की हालत में मदीना की औरतों से कहा था कि अगर अली को ख़िलाफ़त सौंपते तो “वह उनकी ज़िंदगी का सफ़र आसान कर देते।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम की शहादत, वह ग़म नहीं है जो किसी ज़माने में पड़ा हो और फिर आज हम उसकी याद में आंसू बहांए! नहीं, यह ग़म, हर ज़माने का ग़म है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम की शहादत का दुख, यह “ख़ुदा की क़सम हिदायत की बुनियाद तबाह हो गयी जो कहा गया है वह सिर्फ़ उस ज़माने का  नुक़सान नहीं हुआ बल्कि इन्सानियत की पूरी तारीख़ का नुक़सान हुआ। हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा ने इस तारीख़ से 25 बरस पहले बीमारी की हालत में मदीना की औरतों से कहा था कि अगर अली को ख़िलाफ़त सौंपते तो “वह उनकी ज़िंदगी का सफ़र आसान कर देते।” यानी आम इंसान की ज़िदंगी का सफ़र आसान हो जाता। “उन्हें कोई नुक़सान न पहुंचने देते”

पैग़म्बरे इस्लाम के ज़माने में इस्लामी समाज क्या था? दस बरसों तक तो एक मदीना ही था, एक छोटा सा शहर जहां कुछ हज़ार लोग रहते थे। उसके बाद मुसलमानों ने मक्का और ताएफ़ को भी जीत लिया वह भी छोटा सा इलाक़ा, मामूली सी दौलत के साथ। हर तरफ़ ग़रीबी थी, सहूलतों का अभाव था। इस्लामी वैल्यूज़ और शिक्षाएं इस तरह के माहौल में परवाना चढ़ी। पैग़म्बरे इस्लाम को इस दुनिया से गये 25 बरस बीत चुके थे। इन 25 बरसों में, इस्लामी हुकूमत की सरहदें, सैंकड़ों गुना फ़ैल गयीं, दोगुना, तीन गुना, या दस गुना नहीं।

यानी जब हज़रत अली अलैहिस्सलाम को ज़ाहिरी तौर पर हुकूमत मिली, तो सेंट्रल एशिया से लेकर नार्थ अफ़्रीक़ा यानि मिस्र तक, इस्लामी हुकूमत की सरहदें फैली हुई थीं। इस्लामी हुकूमत की दो बड़ी पड़ोसी सल्तनतें यानी ईरान और रोम में से एक तो पूरी तरह से ख़त्म हो गयी थी। यह ईरानी सल्तनत थी और उस दौर में ईरान के हर इलाक़े पर इस्लाम पर क़ब्ज़ा हो गया था। दूसरी रोम की सल्तनत थी जिसके बड़े हिस्से यानी शाम्मात, फ़िलिस्तीन, मूसेल और दूसरे इलाक़ों पर भी इस्लाम का क़ब्ज़ा हो गया था। इतना बड़ा इलाक़ा इस्लाम के क़ब्ज़े में था, इस लिए दौलत भी बहुत ज़्यादा बढ़ गयी थी। अब ग़रीबी और खाने पीने की चीज़ों की कमी नहीं थी। सोना था, दौलत की भरमार थी, बहुत दौलत जमा हो गयी थी। इसी लिए इस्लामी मुल्क मालदार हो गया था। बहुत से लोगों की ज़िंदगी तो ज़रूरत से ज़्यादा ही आराम में गुज़र रही थी।

इन बरसों में बहुत से लोगों ने सरकारी ख़जाने से अपनी जेबें भरी थीं। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने कहा कि मैं यह सारी दौलत सरकारी ख़ज़ाने में वापस लाऊंगाः “यहां तक कि अगर वह दौलत औरतों के मेहर में भी इस्तेमाल हो चुकी हो या उससे कऩीज़ें ख़रीदी जा चुकी हों मैं उन सब को सरकारी ख़ज़ाने में वापस लौटाऊंगा, लोगों को और समाज के बड़े लोगों को यह जान लेना चाहिए कि मेरा तरीक़ा यही है।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम को कूफ़ा के लोग बहुत चाहते थे, उनसे मुहब्बत करते थे। मर्द, औरतें, बड़े-छोटे, ख़ास तौर पर अमीरुल मोमेनीन के क़रीबी साथी बहुत ज़्यादा बेचैन थे। कल के दिन शाम के वक़्त, शहादत से एक दिन पहले, वह सब अमीरुल मोमेनीन के घर के बाहर जमा हो गये थे। इमाम हसन मुजतबा ने, जैसा कि तारीख़ में लिखा है, जब यह देखा कि लोग बेचैन हैं और अमीरुल मोमेनीन को देखना चाहते हैं तो उन्होंने कहा कि भाइयो, मोमिनो! अमीरुल मोमेनीन की हालत अच्छी नहीं है, उनसे मिलना मुमकिन नहीं है, आप सब चले जाएं। सब लोग वहां से हट गये और अपने अपने घर चले गये। असबग़ बिन नबाता कहते हैं कि बहुत कोशिश की लेकिन अमीरुल मोमेनीन के घर से हट नहीं पाया, इस लिए मैं वहीं ठहरा रहा। थोड़ी देर बाद, इमाम हसन अलैहिस्सलाम घर से बाहर आए और जब उनकी नज़र मुझ पर पड़ी तो फ़रमायाः असबग़! सुना नहीं कि यहां से जाना है? मुलाक़ात नहीं हो सकती। मैंने कहा फ़रज़ंदे रसूल! मेरे बदन में जान नहीं है, मैं यहां से हिल नहीं पा रहां हूं, क्या यह नहीं हो सकता कि कि मैं एक लम्हे के लिए आकर अमीरुल मोमेनीन को देख लूं? इमाम हसन अलैहिस्सलाम घर के अंदर गये और फिर बाहर आए और मुझे अदंर जाने की इजाज़त दी।

असबग़ कहते हैं कि मैं कमरे में गया। मैंने  देखा कि अमीरुलमोमेनीन, बिस्तर पर लेटे हैं, और उनके घाव पर एक पीला कपड़ा बंधा हुआ है लेकिन मैं यह नहीं समझ पाया कि कपड़ा ज़्यादा पीला है या इमाम का चेहरा! इमाम, कभी बेहोश होते थे कभी होश में आते। एक बार जब होश में आए तो असबग़ का हाथ पकड़ा और एक हदीस बयान की।

हिदायत की बुनियाद जो कहते हैं उसकी यही वजह है। ज़िदंगी के आख़िरी लम्हे में, इस हालत में भी हिदायत करते हैं। लंबी हदीस बयान की और फिर बेहोश हो गये। इसके बाद न असबग़ बिन नबाता और न ही अमीरुल मोमेनीन के किसी और सहाबी ने उस दिन के बाद अली की ज़ियारत की। अली इसी रात 21वीं की रात इस दुनिया से चले गये और एक दुनिया को ग़मज़दा और एक तारीख को ग़मगीन कर दिया।

आयतुल्लाह ख़ामेनई

5 नवम्बर 2004

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