AhlolBayt News Agency (ABNA)

source : parstoday
शनिवार

26 अक्तूबर 2019

1:39:50 pm
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पैग़म्बरे इस्लाम (स) के स्वर्गवास और उनके नवासे हज़रत इमाम हसन (अ) की शहादत के दुखद अवसर पर विशेष कार्यक्रम।

अंतिम ईश्वरीय दूत और ख़ुदा के सबसे ख़ास बंदे हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स) के स्वर्गवास को शताब्दियां बीत रही हैं, लेकिन उनके प्रभाव का दायरा उनके जीवन काल की तुलना में कहीं ज़्यादा है।

इसलिए कि उनकी पैग़म्बरी का दायरा इंसान के पूरे इतिहास और उसके प्रयासों को अपने अंदर समेटे हुए है और उसने इंसान के भविष्य का निर्धारण किया है। हज़रत मोहम्मद (स) एक ऐसे मार्गदर्शक और रहबर हैं, जिनकी कोई मिसाल नहीं मिलती। उनकी शिक्षाएं हर दिन सुबह की ताज़ा किरणों की तरह चमकती हैं। रहमत के इस दूत ने 28 सफ़र 11 हिजरी को 63 वर्ष की आयु में इस दुनिया को अलविदा कहा और इस दिन दुनिया ने अपना सबसे महान मार्गदर्शक और उपदेशक खो दिया। इसके लगभग चार दशक बाद 28 सफ़र सन 50 हिजरी क़मरी को पैग़म्बरे इस्लाम के नवासे और हज़रत इमाम अली (अ) और हज़रत फ़ातिमा के बड़े बेटे इमाम हसन (अ) को भी ज़हर देकर शहीद कर दिया गया। पैग़म्बरे इस्लाम का निधन और उनके नवासे की शहादत इस्लामी जगत के लिए अत्यंत दुखद घटनाएं थीं।

पैग़म्बरे इस्लाम अपने जीवन के अंतिम दिनों में जब बीमार पड़े तो मदीना के रहने वाले लोग मस्जिद में इकट्ठा हुए और ईश्वरीय दूत के इस दुनिया से चले जाने के ग़म में रोने बिलकने लगे। जब पैग़म्बरे इस्लाम को इसकी सूचना मिली तो उन्होंने हज़रत अली और इब्ने अब्बास से कहा कि उनके हाथ थामें और मस्जिद तक पहुंचने में उनकी मदद करें। पैग़म्बरे इस्लाम मिंबर पर गए और ईश्वर की प्रशंसा के बाद फ़रमायाः हे लोगो, ऐसी क्या वजह है जो अपने ईश्वरीय दूतों की मौत का इनकार कर रहे हो? क्या मुझे और तुम सभी को मौत नहीं आएगी? अगर कोई अमर होता तो मैं तुम्हारे बीच हमेशा के लिए बाक़ी रह जाता। यह जान लो कि मैं ईश्वर के निकट जा रहा हूं और अमानत के रूप में दो मूल्यवान चीज़ें तुम्हें सौंप के जा रहा हूं, याद रखो अगर उनसे जुड़े रहोगे तो कभी भटकोगे नहीं। उनमें से एक ईश्वर की किताब है जो तुम्हारे हाथों में है और तुम उसकी तिलावत करते हो, दूसरे मेरे अहलेबैत या परिजन हैं, मैं तुमसे उनके साथ भलाई करने की सिफ़ारिश करता हूं।

पैग़म्बरे इस्लाम की यह अंतिम सार्वजनिक बैठक थी। वे उस दिन इसलिए ख़ुश थे, क्योंकि उन्होंने अपनी उम्मत के भविष्य को निर्धारित कर दिया था। उन्होंने अपने इर्दगिर्द इकट्ठा होने वालों से कहाः हे लोगो, यह जान लो कि मेरे बाद कोई दूत नहीं आएगा और मेरे बाद किसी की कोई परम्परा नहीं होगी। अगर कोई ईश्वरीय दूत होने का दावा करे तो यह केवल उसका दावा होगा और उसका स्थान नरक में होगा। हे लोगो, सत्य पर डटे रहना और विघटन का शिकार नहीं होना और मुसलमान बने रहना, ताकि तुम्हारा कल्याण जो जाए।

पैग़म्बरे इस्लाम (स) अपने अंतिम समय में भी लोगों से एक दूसरे के अधिकारों पर ध्यान देने की सिफ़ारिश कर रहे थे। फिर उन्होंने कहा कि मेरे भाई और मित्र को यहां बुलाओ। पैग़म्बर की पत्नी उम्मे सलमा ने कहा कि अली को बुलाओ कि पैग़म्बर का तात्पर्य उनके अलावा किसी और से नहीं है। जब हज़रत अली अलैहिस्सलाम आए तो पैग़म्बर ने उन्हें निकट आने का इशारा किया। फिर उन्हें गले से लगा कर देर तक धीमे स्वर में बातें करते रहे और फिर बेहोश हो गए। यह देखकर पैग़म्बरे इस्लाम (स) के नवासे इमाम हसन और इमाम हुसैन अलैहिमस्सालाम रोने लगे और पैग़म्बर इस्लाम से चिमट गए। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने उन दोनों को हटाना चाहा कि उसी समय पैग़म्बर होश में आ गए और उन्होंने कहाः हे अली! इन दोनों को यहीं रहने दो ताकि मैं उनकी सुगंध सूंघूं और और वे मेरी सुगंध सूंघें।

पैग़म्बरे इस्लाम (स) का वजूद मानव समाज के लिए कृपा की वर्षा और संसार के लिए आत्मा की तरह था। जब ईश्वर ने उन्हें अपना पैग़म्बर चुना तो उस समय अरब प्रायद्वीप जिहालत और भ्रष्टाचार के समुद्र में डूबा हुआ था। पैग़म्बरे इस्लाम की पैग़म्बरी के 23 साल, इंसानियत, ज्ञान, न्याय और शिष्टाचार के लिए अमूल्य मीरास हैं। पैग़म्बरे इस्लाम की शिक्षाओं के ज़रिए मानव समाज संसार की वास्तविकताओं से अवगत हुआ और उसने अपने स्थान को पहचाना। ईसाई राजनीतिज्ञ फ़ारस अल-ख़ूरी ने अंतिम ईश्वरीय दूत क श्रद्धांजलि देते हुए कहा हैः मोहम्मद (स) दुनिया की महान हस्तियों में से एक हैं। उनके बाद दुनिया ने उनके जैसा नहीं देखा है, जिस धर्म का उन्होंने प्रचार किया वह समस्त धर्मों के बीच संपूर्ण और व्यापक है। उन्होंने अरबों को इतने अधिक मतभेदों के बावजूद एकजुट किया और उनकी उम्मत ने दुनिया को फ़तह किया।

पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने जिस सभ्यता का आधार रखा था उसकी एक अहम विशेषता सहनशीलता थी। जिसे उन्होंने उस समय के अरब जगत में प्रचलित जातीय व धार्मिक कट्टरता के स्थान पर पेश किया था। उन्होंने व्यवहार में संतुलन व मध्यमार्ग का रास्ता पेश करके विभन्न प्रकार की शिक्षाओं, कलाओं और उद्योगों के प्रसार का मार्ग समतल किया। अमीरका के प्रख्यात इतिहासकार व लेखक विल ड्यूरेन्ट अपनी प्रसिद्ध किताब सभ्यता का इतिहास में लिखते हैं कि मोहम्मद ने मरुस्थल में बिखरे हुए और मूर्तियों की पूजा करने वाले क़बीलों से एक एकजुट समुदाय बनाया। उन्होंने यहूदी और ईसाई धर्म और अरबों के प्राचीन धर्म से श्रेष्ठ एक सरल, सादा, स्पष्ट और मज़बूत धर्म पेश किया जिसके मानने वाले अत्यंत साहसी थे और जिन्होंने थोड़े ही समय में एक महान शासन खड़ा कर दिया और हमारे समय में भी यह एक अहम ताक़त है जो आधे संसार पर प्रभाव रखती है।

आज इस महान हस्ती को गुज़रे हुए शताब्दियां बीत चुकी हैं, लेकिन जब भी उनका नाम लिया जाता है और उनके आचरण की बात होती है तो इंसान के सामाने आदर्श का ऐसा नमूना होता है, जिसकी मिसाल इतिहास में नहीं मिलती। पैग़म्बरे इस्लाम के इस दुनिया से चले जाने के बाद उनकी उम्मत ने काफ़ी उतार-चढ़ाव देखे और कई परीक्षाओं से गुज़री। धीरे धीरे लोगों पर इस्लाम की सच्चाई उजागर हुई और दुनिया ने पैग़म्बरे इस्लाम की शिक्षाओं से लाभ उठाया।

28 सफ़र की तारीख़ अंतिम ईश्वरीय दूत और इमाम हसन (अ) के इस दुनिया से चले जाने का दिन है। यह दिन हमें पैग़म्बरे इस्लाम की उस नसीहत की भी याद दिलाता है, जो उन्होंने अपने जीवन के अंतिम क्षणों में अपनी उम्मत से की थी कि मैं तुम्बारे बीच दो मूल्यवान चीज़ें छोड़कर जा रहा हूं, कभी भी इनसे जुदा नहीं होनाः एक क़ुरान और दूसरे मेरे अहलेबैत। पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बड़े नवासे हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम लगभग छः साल की आयु तक अपने नाना की छत्रछाया में रहे थे और उन्होंने देखा था कि किस प्रकार नाना हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम और उनके बाद माता-पिता हज़रत फ़ातेमा ज़हरा और हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने इस्लाम की रक्षा करते हुए विभिन्न कठिनाइयों व साज़िशों के ख़िलाफ़ संघर्ष किया था। इमाम हसन ने भी इन्हीं हस्तियों के पदचिन्हों पर चलते हुए अंतिम सांस तक ईश्वर के अंतिम धर्म इस्लाम के सिद्धांतों व मूल्यों की रक्षा की।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद इमाम हसन ने इमामत अर्थात समाज के नेतृत्व व मार्गदर्शन की ज़िम्मेदारी संभाली। इमामत की शुरूआत में ही उन्हें मआविया जैसे धूर्त शासक का सामना हुआ जो हज़रत अली के ख़िलाफ़ भी युद्ध कर चुका था। कूफ़े के लोगों ने बड़ी संख्या में इमाम हसन के आज्ञापालन का प्रण लिया लेकिन उनमें निष्ठावान और विश्वसनीय लोग कम ही थे। उनमें से अधिक लोगों के अपने अपने हित व उद्देश्य थे जिनके चलते उन्होंने इमाम हसन अलैहिस्सलाम की बैअत की थी। इमाम हसन के मुक़ाबले में मआविया जैसा धूर्त शासक था जो हर तरह के हथकंडों से अपनी सत्ता मज़बूत बनाने की कोशिश में लगा हुआ था। उसने अपने अधीन क्षेत्रों में भय व आतंक का माहौल बना रखा था जिसके चलते कम ही लोग थे जो पूरी सच्चाई और निष्ठा के साथ इमाम हसन का साथ दे सकते थे।

इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैय्यद अली ख़ामेनई इमाम हसन के कठिन दौर के बारे में कहते हैं कि उस समय के इसलामी समाज की विशेष प्रकार की परिस्थितियों के कारण हज़रत अली (अ) शहीद कर दिए गए। इसके बाद इमाम हसन (अ) की इमामत का ज़माना शुरू हुआ। चूंकि परिस्थितियां वही थीं इसीलिए छह महीने से अधिक समय तक लोगों ने इमाम हसन अलैहिस्सलाम का साथ नहीं दिया बल्कि उनका साथ छोड़ कर हट गए। इमाम हसन जानते थे कि यदि वह अपने मुट्ठी भर साथियों के साथ मआविया से लड़ते हैं और शहीद कर दिए जायेंगे तो जो हालात हैं उनमें कोई भी उनके मिशन को आगे नहीं बढ़ा पाएगा। इसीलिए इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने मआविया से संधि करने का फ़ैसला किया हालांकि उन्हें मालूम था कि इन परिस्थितियों में ज़िंदा रहना मर जाने से अधिक कठिन होगा। इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने इस कठिनाई को सहन किया।

इस तरह से इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने इस वास्तविकता को दर्शा दिया कि सत्य की रक्षा और अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष में समय और परिस्थितियों के अनुसार फ़ैसला करना चाहिए ताकि अनावश्यक रक्तपात न हो और वांछित परिणाम भी सामने आ जाए। मआविया से संधि के बाद इमाम हसन अलैहिस्सलाम मदीना नगर को लौट गए और नए रूप में अपनी राजनीतिक, सांस्कृतिक व वैचारिक गतिविधियां आरंभ कर दीं। इमाम हसन अलैहिस्सलाम के प्रयासों से जनता को पता चल गया कि मुसलमानों के नेतृत्व का अधिकार केवल पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों को है और मआविया ने धूर्तता के साथ ख़िलाफ़त हड़प ली है। इसके बाद मआविया के ख़िलाफ़ आंदोलन का मार्ग समतल होने लगा जिससे वह बहुत घबरा गया। उसके सलाहकारों ने उसे बताया कि इमाम हसन ने अपने पिता हज़रत अली की याद ताज़ा कर दी है जिससे उसकी सत्ता ख़तरे में पड़ गई है। मआविया ने अपनी सत्ता बचाने के लिए इमाम हसन के अस्तित्व को समाप्त करने का फ़ैसला किया और अंततः उसने एक साज़िश के तहत इमाम हसन की एक पत्नी के माध्यम से उन्हें ज़हर दे दिया। इस तरह 28 सफ़र सन 50 हिजरी क़मरी को पैग़म्बरे इस्लाम के बड़े नवासे हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम शहीद कर दिए गए।