AhlolBayt News Agency (ABNA)

source : parstoday
बुधवार

16 अक्तूबर 2019

1:25:03 pm
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इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के चेहलुम के उपलक्ष्य पर विशेष कार्यक्रम

एक बार फिर ज़ियारत का समय आ गया है।

एक बार फिर ज़ियारत का समय आ गया है। ऐसी महान हस्ती की पावन समाधि की ज़ियारत का समय आ गया है जिसने अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने और प्रतिरोध का पाठ दिया और यह पाठ पूरी दुनिया में फैला दिया। ज़ियारत महान ईश्वर के दूतों से संपर्क साधने का बेहतरीन तरीक़ा है जो महान ईश्वर की कृपा और अध्यात्म में वृद्धि का कारण बनती है। "मदीने मुन्वरा का इतिहास" किताब के लेखक इब्ने शुब्हा ने लिखा है कि हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम जब मक्का नगर पर विजय के बाद मदीना लौट रहे थे तो अपनी मां की क़ब्र की ज़ियारत व दर्शन के लिए गये तो कहा यह मेरी मां की क़ब्र है और मैंने ईश्वर से अपनी मां की कब्र की ज़ियारत के लिए दुआ की थी और ईश्वर ने मुझे यह अवसर प्रदान किया।"

जब इंसान किसी ईश्वरीय दूत या महान हस्ती की ज़ियारत करता है तो उसे अधिक हार्दिक व मानसिक शांति प्राप्त होती है। कुछ विद्वानों का मानना है कि ज़ियारत का, ज़ियारत करने वाले के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर बहुत प्रभाव पड़ता है। क्योंकि ज़ियारत के अंदर दो चीज़ें नीहित होती हैं एक झुकाव व रुजहान और दूसरे पहचान। दूसरे शब्दों में ज़ियारत रुचि और पहचान का परिणाम है और ज़ियारत की जिज्ञासा का संबंध दिल से होता है। इस तरह से ज़ियारत इंसान की उत्सुकता और इरादे को दिशा प्रदान करती है और इंसान के व्यवहार और उसकी आंतरिक शांति पर प्रभाव डालती है और यह शांति इंसान के जीवन के लिए ज़रूरी है।

पैग़म्बर और इमाम महान ईश्वर के निकटतम बंदे हैं जो ईमान और उसके सामिप्य के शिखर पर हैं और महान व सर्वसमर्थ ईश्वर ने उन्हें प्रकार के पाप, भूल और ग़लती से पवित्र रखा है। इन महान हस्तियों का आदर- सम्मान ज़ियारत करने वाले और इमाम के बीच हार्दिक संबंध को मज़बूत करता है और वास्तव में उनके रास्ते पर इंसान के बाकी रहने का कारण बनता है। इमामों के पवित्र रौज़े पूरे इतिहास में धर्म के प्रचार प्रसार, ज्ञान, आंदोलनों व प्रतिरोधों और इसी प्रकार लोगों के मध्य प्रतिबद्धता के केन्द्र रहे हैं। इसी वजह से पवित्र नगर नजफ, मशहद और क़ुम में महान हस्तियों के रौज़ों के किनारे बड़े- बड़े धार्मिक शिक्षा केन्द्र हैं।

अरबईन या इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के चेहलुम के अवसर पर लाखों लोग इमाम के प्रेम व श्रृद्धा में ज़ियारत करने के लिए इराक के पवित्र नगर कर्बला जाते हैं। ज़ियारत करने वाले या तीर्थयात्री सबसे पहले इराक के पवित्र नगर नजफ जाते हैं और वहां पर हज़रत अली अलैहिस्लाम की पवित्र क़ब्र की ज़ियारत करने के बाद पैदल पवित्र नगर कर्बला की यात्रा तय करते हैं। नजफ से कर्बला का रास्ता तीर्थयात्रियों से भरा रहता है और पूरे रास्ते में लब्बैक या हुसैन की आवाज़ गूंजती रहती है। इसी तरह नजफ से कर्बला तक सड़क के दोनों किनारों पर जगह- जगह सबीलें और खाने- पीने और सोने के लिए कैंप लगाये जाते हैं जिन्हें इराकी मौकिब कहते हैं। इसी तरह नजफ से कर्बला तक पूरे रास्ते में खंभे लगे हैं जिनमें लाइट का प्रबंध किया गया है। खंभे को अरबी भाषा में अमूद कहा जाता है। नजफ से कर्बला के बीच में 1452 खंभे हैं और एक खंभे से दूसरे खंभे के बीच की दूरी 50 मीटर है। 1452 वां खंभा कर्बला में जनाब अब्बास अलैहिस्सलाम के पवित्र रौज़े के सामने है।

जो रास्ते पवित्र नगर कर्बला की ओर जाते हैं उनमें  आजकल बहुत भीड़ है। कर्बला जाने वालों में बहुत से तीर्थयात्री ऐसे भी हैं जो सालों से कर्बला जाने की तमन्ना करते थे और इस साल उन्हें कर्बला जाने का सौभाग्य प्राप्त हो गया है। नजफ से कर्बला की दूरी 80 किलोमीटर है। अधिकांश तीर्थयात्री इस दूरी को पैदल तय करते हैं जबकि कुछ इस दूरी को नंगे पैर तय करते हैं। तीर्थयात्रियों के मार्ग में किसी भी व्यक्तिगत या सार्वजनिक वाहन को चलने की अनुमति नहीं होती है और बहुत से काफिले और लोग कई दिन पहले से नजफ से कर्बला की ओर रवाना हैं और प्रायः तीन दिन में नजफ से कर्बला पैदल पहुंच जाते हैं जब कर्बला पहुंच जाते हैं तो हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का पवित्र रौज़ा लब्बैक या हुसैन की आवाज़ से गूंज उठता है।

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की पवित्र क़ब्र की ज़ियारत का सवाब बहुत ज्यादा है। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के हवाले से रवायत में आया है कि ईश्वर के निकट सबसे प्रिय कार्य इमाम हुसैन के कब्र की ज़ियारत है”

20 सफ़र को इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का चेहलुम या अरबईन होता है। यह वही दिन है जिस दिन इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के परिजन शाम से मदीना वापस हुए थे। इसी प्रकार रवायत में है कि इसी दिन पैग़म्बरे इस्लाम के एक सहाबी जाबिर बिन अब्दुल्लाह अंसारी ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की क़ब्र की ज़ियारत की थी। इसके लिए वे मदीना से कर्बला आये थे और वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की पवित्र क़ब्र की ज़ियारत की थी।

पदयात्रा का मार्ग सबसे पहले उस अत्याचार की याद दिलाता है जो पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों पर हुए हैं। यद्यपि इन चालिस दिनों को इतिहास में हृदयविदारक दिनों के रूप में याद किया जाता है परंतु यह दिन इस्लाम के दुश्मनों के मुकाबले में अदम्य साहस के साथ प्रतिरोध और असत्य पर सत्य की विजय की याद दिलाता है। यहां तक कि शाम में भी लोग उमवियों और उनकी सरकार पर लानत भेजते थे जबकि शाम उमवियों की सरकार का केन्द्र था।

जब हम इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के प्रेम और उनकी श्रद्धा में पैदल चलते हैं तो रास्ते में थोड़ी- थोड़ी दूर पर देखते हैं कि कहीं खाना मिल रहा है, कहीं शर्बत बट रहा है, कहीं देखते हैं कि छोटी बच्ची खजूर लिए ख़ड़ी है जो इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के श्रद्धालुओं से आग्रह कर रही है कि उसकी खजूर खा ले। इसी तरह हम देखते हैं कि एक अरब व्यक्ति इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के तीर्थयात्रियों से आग्रह कर रहा है कि  लोग उसके घर चलें और उसने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के श्रद्धालुओं के आतिथ्य सत्कार के लिए अपने पूरे घर को मेहमान खाना बना दिया है और खुद उनके साथ बहुत ही नम्र भाव से पेश आ रहा है। इसी प्रकार जब हम पैदल चलते रहते हैं तो रास्ते में क्या देखते हैं कि एक व्यक्ति इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की श्रृद्धा में पैदल चलने वाले लोगों से आग्रह कर रहा है कि उसे अपने जूते साफ करने के लिए दे दें। वह तीर्थयात्रियों के जूतों को लेता है और उन्हें साफ करके पालिश करता है। इसी प्रकार हम देखते हैं कि जगह- जगह एसे लोग होते हैं जो इमाम हुसैन अलैहिस्लाम के श्रृद्धालुओं के पैर दबाते हैं और इस कार्य को वे बड़ी ही निष्ठा के साथ अंजाम देते हैं। दूसरे शब्दों में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के प्रेम और श्रृद्धा में डूबे पैदल चलने वालों की जो सेवा होती है उसे शब्दों में बयान ही नहीं किया जा सकता। जो इंसान इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के प्रेम और श्रद्धा में पैदल चलता है उसे वहां के आध्यात्मिक वातावरण को देखकर यह आभास होने लगता है कि उसका संबंध खुद से नहीं है उसका नियंत्रण स्वंय पर नहीं है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के प्रेम ने सबको बदल दिया है। वहां कोई अपना और पराया नहीं है वहां प्रेम और भाइचारे का माहौल होता है वहां यह आभास होता है कि सब अपने हैं एसा लगता है कि 21वीं सदी में ज़मीन के इस टुकड़े पर जीवन को हर प्रकार के अपराध से अलग कर दिया गया है। दूसरे शब्दों में सन 61 हिजरी कमरी में जिस जगह पर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके वफादार साथियों व परिजनों का खून बहा था आज वही ज़मीन शांति का केन्द्र बन गयी है। यह ज़मीन अब लब्बैक या हुसैन के नारों से गूंज रही है।

सन 61 हिजरी कमरी में बनी उमय्या की सरकार का पूरा प्रयास यह था कि आशूरा की घटना को छिपा दिया जाये और लोगों को पता ही न चले कि आशूर में हुआ क्या था। उस समय की अत्याचारी और भ्रष्ट सरकार का प्रयास था कि अधिक से अधिक दुष्प्रचार किया जाये। इस प्रकार के वातावरण में लोगों को पता ही न चल पाता कि आशूर क्या है और इस दिन क्या हुआ था? किन्तु हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम और हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा के अनथक प्रयासों से लोगों को इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके वफादार साथियों की कुर्बानियों का पता चला। इन महान हस्तियों के सुप्रयासों ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के महाआंदोलन के संदेश को लोगों तक पहुंचाया और उसे अमर बना दिया।

कर्बला की घटना को हुए 1400 साल से अधिक का समय बीत रहा है। अब कर्बला वह जगह बन गयी है जहां शीया- सुन्नी और इसाई आदि सभी एकत्रित हैं और सब मिलकर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का शोक मनाते हैं। यहां इस बात का उल्लेख आवश्यक है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम किसी एक जाति, कौम या समाज के नहीं हैं बल्कि उनका संबंध समस्त मानवता से है और वह सबके हैं। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का प्रेम बूढ़ा और जवान नहीं पहचानता। बहुत से बूढ़े मर्द और बूढ़ी महिलाएं भी हैं जो इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के प्रेम और श्रद्धा में पैदल चल रही हैं जबकि उनके लिए रास्ता चलना काफी सख्त है किन्तु इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के प्रेम ने उनके अंदर एसी ऊर्जा भर दी है जिसकी तुलना किसी भी ऊर्जा से नहीं की जा सकती।

अरबईन की पदयात्रा जारी है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम  के बहुत से श्रद्धालु कर्बला पहुंच चुके हैं जबकि कुछ पहुंचने वाले हैं। इस बात पर कौन विश्वास कर सकता था कि कर्बला की महान घटना के 1400 साल बाद लाखों लोग इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की मज़मूलियत का ध्वज उठायेंगे और अरबईन के दिन दुनिया के कोने- कोने से कर्बला में एकत्रित होंगे और वहां की महारैली में भाग लेंगे। हां अगर आप थोड़ा सा ध्यान से सोचें तो देखेंगे कि सबके आने से इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की प्राणप्रिय बहन हज़रत ज़ैनब के दिल को सुकून मिल रहा होगा क्योंकि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के शहीद होने के बाद स्वयं वह चालिस दिन के बाद शाम से कर्बला आयी थीं ताकि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और आशूर के दिन होने वाली घटनाओं को याद कर सकें। यह वही इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम हैं जिनके बारे में पैग़म्बरे इस्लाम का मशहूर कथन है कि हुसैन मुझसे है और मैं हुसैन से हूं।“

बहरहाल इराक के नजफ नगर से हमने जो पदयात्रा आरंभ की थी अब वह समाप्त हो गयी है। अब मैं कर्बला में बैनल हरमैन नामक स्टान पर हूं यानी इमाम हुसैन और हज़रत अब्बास अलैहिमस्सलाम के रौज़ों के बीच में हूं। हर जगह इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के श्रद्धालु भरे पड़े हैं और कहीं तिल रखने की भी जगह नहीं है। इस अध्यात्मिक वातावरण में यह आभास कर सकते हैं कि महान व सर्वसमर्थ ईश्वर की अनुमति से इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की पवित्र आत्मा ने अपने श्रद्धालुओं के दिलों को अपने घरे में ले रखा है और ज़ियारत को उनके लिए अध्यात्मिक मुलाक़ात में परिवर्तित कर दिया है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के पवित्र रौज़े से अरबईन की ज़ियारत पढ़ी जा रही है। इमाम हसन अस्करी अलैहिस्स्लाम फरमाते हैं मोमिन की पांच अलामतें हैं और उनमें से एक अलामत अरबईन की ज़ियारत का पढ़ना है। सलाम हो ईश्वर के उत्तराधिकारी और उसके दोस्त पर,

सलाम हो उसके दोस्त और चुने हुए पर, सलाम हो ईश्वर के चुने हुए पर और उसके चुने हुए बेटे पर सलाम हो, सलाम हो मज़लूम हुसैन पर जिसे मुसीबतों ने घेर लिया और सलाम हो उस पर जिसे रुला- रुला कर शहीद किया गया।“