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source : parstoday
बुधवार

26 जून 2019

2:59:19 pm
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पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम की शहादत

इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम एक ऐसी महान हस्ती थे जिनके अथक प्रयासों को पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के बाद इस्लामी इतिहास में अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है।

वर्ष 148 हिजरी क़मरी में 25 शव्वाल को इमाम जाफ़र सादिक़ को 65 वर्ष की आयु में शहीद कर दिया गया था। उनकी शहादत ने न केवल इस्लामी जगत, बल्कि ज्ञान और सत्य की खोज में रहने वालों को बहुत अधिक दुखी कर दिया। हम इमाम की शहादत की बरसी पर उनके जीवन के कुछ पहलुओं पर प्रकाश डालने की कोशिश करेंगे।

इमाम के रिश्तेदार और मित्र एक एक करके उनके घर पहुंच रहे थे। इमाम ने स्वयं उन्हें बुलवाया था कि वे सभी जीवन के अंतिम क्षणों में उनके पास इकट्ठा हों। उन्होंने एक घूंट पानी पिया। उनकी स्थिति से सभी चिंताजनक थे और कुछ तो रोने लगे थे। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने उन्हें शांत रहने के लिए उनकी बातें ध्यान से सुनने के लिए कहा। इसके बाद उन्होंने कहा कि मैंने तुम्हें इस लिए यहां बुलाया है कि तुम मेरे अंतिम समय में मेरी कुछ बातें सुन लो। थोड़ी देर तक कमरे में सन्नाटा छाया रहा। सभी यह जानने को उत्सुक थे कि इमाम ने उन्हें क्या कहने के लिए बुलाया है। इमाम जाफ़र सादिक अलैहिस्सलाम के होंठ हिले और उन्होंने धीरे से कहाः जो नमाज़ को हल्का समझेगा उसे हमारी शेफ़ाअत या सिफ़ारिश नहीं मिलेगी। यह वाक्य इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम के अंतिम कथनों में से एक था। इस प्रकार 25 शव्वाल सन 148 हिजरी क़मरी को इस्लामी जगत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम जैसी महान हस्ती के निधन के शोक में डूब गया।

इमाम ज़ैनुल आबेदीन, इमाम मुहम्मद बाक़िर और इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिमुस्सलाम जैसे तीन इमामों की इमामत के काल को सच्चे इस्लाम के वैचारिक, वैज्ञानिक व सांस्कृतिक पहलुओं से संसार को परिचित कराने का काल कहा जा सकता है। इसी काल में इमाम ज़ैनलु आबेदीन अलैहिस्सलाम ने ज्ञान के क्षेत्र में अपनी कोशिशों और इसी तरह दुआओं और प्रार्थानओं के सहारे सच्चे इस्लाम के आधारों का पुनर्निर्माण शुरू किया। उनके प्रयासों को जारी रखते हुए उनके सुपुत्र इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम ने पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम व हज़रत अली अलैहिस्सलाम द्वारा परिचित कराए गए सच्चे इस्लाम के स्वरूप को धार्मिक आदेशों के माध्यम से दुनिया के सामने पेश किया। इसके बाद इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने उन आदेशों पर धर्म के मज़बूत आधारों को स्थापित किया और ज्ञान, धर्म व राजनीति से संबंधित इमामों की श्रेष्ठता को सिद्ध कर दिया।

इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने अपने समय की परिस्थितियों के दृष्टिगत इस्लामी शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार और उन्हें मज़बूती प्रदान करना एवं एकेश्वरवाद के संबंध में पैदा की जा रही शंकाओं व भ्रांतियों को दूर करना इमाम के रूप में अपनी ज़िम्मेदारी समझा। एक ईश्वरीय मार्गदर्शक के रूप में उन्होंने लोगों एवं समाज का प्रशिक्षण करना और इस्लाम के वैचारिक मत की बुनियाद रखना ज़रूरी समझा। इसलिए कि इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम का काल ऐसा काल था जिसमें विभिन्न घटनाएं हुईं और इसे इस्लामी इतिहास का घटनाक्रमों से भरा हुआ काल कहा जा सकता है। उस काल में बनी उमय्या से बनी अब्बास को शासन का हस्तांतरण हुआ।

दूसरी ओर यह काल मतों और विचारधाराओं के टकराव एवं दार्शनिक विचारों के काल था। इस काल में मुसलमान भी ज्ञान की प्राप्ति में आगे आगे थे। इसके अलावा, अनुवाद द्वारा इस्लामी जगत तक दार्शनिक विचार पहुंच रहे थे। निश्चित रूप से इस काल में असमंजस की स्थिति में पड़ने और सुस्ती दिखाने से लोग भटक जाते और धर्म का ग़लत मतलब निकालते। ऐसे संवेदनशील दौर में इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के सामने एक कठिन एवं अहम ज़िम्मेदारी थी। एक ओर लोगों के नास्तिकतावाद की ओर झुकाव का ख़तरा था, तो दूसरी ओर इस्लामी सिद्धांतों एवं शिक्षाओं को परिवर्तन और ग़लत मतलब निकालने से सुरक्षित रखना था। ऐसी परिस्थितियों में इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने इस्लामी शिक्षाओं एवं सिद्धांतों को पुनर्जीवित करने का बीड़ा उठाया।

इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम की पवित्र आयु 65 साल थी जिसमें से अंतिम 34 बरस, उनके कंधों पर इस्लामी समुदाय की इमामत या नेतृत्व की भारी ज़िम्मेदारी रही। इन बरसों में बनी उमय्या और बनी अब्बास के बीच टकराव अपने चरम पर था जिसके कारण इमाम को यह अवसर मिल गया कि वे शासकों द्वारा इस्लाम को तोड़ मरोड़ कर पेश करने के षड्यंत्रों को विफल बना दें। बनी उमय्या के शासन के अंतिम काल में इस्लामी समाज की स्थिति बहुत ख़राब हो गई थी। उमवी शासकों के सत्ता प्रेम व अत्याचारी प्रवृत्ति से लोग बहुत कठिनाई में थे। दरिद्रता व भ्रष्टाचार ने समाज पर अपनी काली छाया डाल दी थी और नैतिकता व अध्यात्म का रंग फीका पड़ने लगा था। क़ुरआने मजीद की शिक्षाएं और पैग़म्बर की हदीसें, जिन्हें लोगों की परिपूर्णता व उनके भीतर सद्गुणों के पोषण का कारण बनना चाहिए था, सत्ताधारी टोले के हथकंडों में बदल गई थीं। दूसरी ओर विभिन्न प्रकार के भ्रष्ट व ग़लत विचारों के साथ असंख्य मत जन्म लेने लगे थे। इन कठिन व चिंताजनक परिस्थितियों में इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने अपने पिता इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम के बाद ईश्वरीय नेतृत्व का भार अपने कंधों पर उठाया और इस्लामी समुदाय के मार्गदर्शन की ज़िम्मेदारी संभाली।

इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम को पैग़म्बरे इस्लाम का वंशज होने के कारण व्यापक ज्ञान एवं नैतिकता जैसे अनेक सद्गुण एवं विशेषताएं, विरासत में मिली थीं और वे ज्ञान के शिखर पर थे। अनेक इतिहासकारों व मुस्लिम धर्मगुरुओं का कहना है कि अपने काल में इमाम सादिक़ से बड़ा कोई ज्ञानी नहीं था। वे मुसलमानों के बीच एक मज़बूत रस्सी की तरह थे, जिसे थामे रहने से मुसलमानों के बीच एकता बनी हुई थी। इतिहास में वर्णित है कि लोग मदीना नगर, उसके आस-पास के क्षेत्रों और दूरदराज़ के इलाक़ों से इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के पास ज्ञान प्राप्ति के लिए आते थे। इमाम सादिक़ के शिष्यों की संख्या 4000 हज़ार तक बताई है जो विभिन्न विषयों में उनसे ज्ञान अर्जित किया करते थे। इन ज्ञानों में भौतिकशास्त्र से लेकन दर्शनशास्त्र, धर्मज्ञान से लेकर इतिहास तक, रसायनशास्त्र से लेकर साहित्य तक शामिल है।

इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के शिष्य केवल शिया मुसलमान ही नहीं थे बल्कि सुन्नी मुसलमानों ने भी इमाम के ज्ञान से काफ़ी लाभ उठाया। सुन्नियों के चार इमामों में से कुछ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उनके के शिष्य थे। इनमें सबसे प्रमुख अबू हनीफ़ा थे, जिन्होंने 2 वर्ष तक इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम से ज्ञान प्राप्त किया। इमाम सादिक़ ने धर्मशास्त्र और वाद्शास्त्र को लिखित रूप में पेश किया और विद्वानों समेत ज्ञान का मूल्यवान भंडार इस्लामी जगत के लिए विरासत में छोड़ा। इमाम जाफ़र सादिक़ के प्रयासों से नैतिकता, शिष्टाचार, धर्मशास्त्र, वाद्शास्त्र, क़ुरआन की व्याख्या और अन्य विषयों में काफ़ी महत्वपूर्ण ज्ञान इस्लामी जगत विशेष रूप से शियों को प्राप्त हुआ। ज्ञान पर आधारित इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के मत की बुनियादें बहुत मज़बूत हैं। उनके नेतृत्व में शिया मत ऐसा पहला मत था जिसकी धार्मिक बुनियादों का आधार विचार और बुद्धि पर था। इस मत में किसी भी मत की तुलना में ज्ञान और बुद्धि को महत्व प्राप्त है। इमाम जाफ़र सादिक़ की शिक्षाओं और हदीसों की अधिक संख्या के कारण शिया मत को जाफ़री मत भी कहा जाता है।

ऐसे समय में जब सांस्कृतिक परिवर्तन और विभिन्न विचारों व आस्थाओं के बीच टकराव, मुस्लिम समाज की हर दिन की समस्या बन गया था, इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम, विभिन्न मतों व आस्थाओं के लोगों से बहस और शास्त्रार्थ किया करते थे और ठोस व स्पष्ट तर्कों से उनकी शंकाओं का जवाब दिया करते थे। सुन्नी मुसलमानों के एक इमाम, अबू हनीफ़ा कहते हैं कि एक दिन दूसरे अब्बासी शासक मंसूर दवानीक़ी ने किसी को मेरे पास भेजा और कहा कि हे अबू हनीफ़ा! लोग जाफ़र बिन मुहम्मद पर मोहित हैं और उनका सामाजिक स्थिति बहुत मज़बूत है। तुम उनकी स्थिति कमज़ोर करने और लोगों को उनसे दूर करने के लिए कुछ जटिल सवाल तैयार करो और उचित अवसर पर उनसे पूछो।

अबू हनीफ़ा कहते हैं कि मैंने चालीस अत्यंत कठिन सवाल तैयार किए। एक दिन मंसूर ने मुझे बुलवाया। जब मैं उसके पास पहुंचा तो देखा कि इमाम जाफ़र सादिक उसकी दाहिनी तरफ़ बैठे हुए हैं। मैं उनके तेज व प्रतिष्ठा से इतना प्रभावित हुआ जिसे शब्दों में बयान नहीं कर सकता जबकि मंसूर को देखने से वह स्थिति कभी मुझमें पैदा नहीं हुई थी। मंसूर के कहने पर मैंने वे चालीस अत्यंत कठिन सवाल एक एक करके उनसे पूछे और उन्होंने बड़ी विनम्रता से लेकिन ठोस तरीक़े से उन सबका जवाब दिया। वे सभी गुटों की आस्थाओं का उल्लेख करते थे। कुछ मामलों में वे हमारे मत से सहमत थे, कुछ मामलों में मदीने के धर्मगुरुओं की पुष्टि करते थे और कभी कभी हम दोनों के विचारों को रद्द करके अपना तीसरा विचार बयान करते थे। मैंने धर्म का उनसे बड़ा ज्ञानी नहीं देखा। वे इस समुदाय के सबसे बड़े विद्वान हैं।

एक बार इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के किसी परिजन ने उनकी अनुपस्थिति में किसी के सामने उनकी बुराई की। जब उन्हें इसका पता चला तो वे बहुत दुखी हुए लेकिन उन्होंने कोई भी प्रतिक्रिया जताए बिना पूरी शांति के साथ वुज़ू किया और नमाज़ पढ़ने लगे। वहां उपस्थित एक व्यक्ति का कहना है कि मुझे लगा कि इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम उसके लिए बददुआ करेंगे और ईश्वर से उसके लिए श्राप मांगेंगे लेकिन मैंने देखा कि उन्होंन नमाज़ के बाद अपने उस परिजन के लिए दुआ की और कहाः प्रभुवर! मैंने अपना अधिकार छोड़ दिया है और उसे क्षमा कर दिया है, मैं तुझसे भी, सबसे अधिक क्षमा करने वाला है, प्रार्थना करता हूं कि उसे क्षमा कर दे और दंडित न कर।

मुसलमानों के बीच इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम की लोकप्रियता और उनके हज़ारों शिष्यों के कारण अब्बासी ख़लीफ़ा मंसूर उन्हें अपने अवैध शासन के लिए एक ख़तरा समझता था और उनसे गहरा द्वेष रखता था। इसी लिए उसने एक षड्यंत्र रच कर इमाम को ज़हर दिलवा दिया और तीन दशक तक इस्लामी समुदाय के नेतृत्व की ज़िम्मेदारी संभालने और मुसलमानों का मार्गदर्शन करने के बाद सन 765 ईसवी में 65 वर्ष की आयु में वे शहीद हो गए। शहादत के बाद इमाम सादिक़ को पवित्र मदीना शहर में स्थित जन्नतुल बक़ी क़ब्रिस्तान में दफ़्न कर दिया गया।

कार्यक्रम का अंत हम इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के कुछ स्वर्ण कथन से कर रहे हैं। वे कहते हैं। वह व्यक्ति हमसे नहीं है जो बड़ों का आदर और छोटों पर दया न करे। एक अन्य स्थान पर वे कहते हैं। ज्ञान प्राप्त करो, और उसे दूरदर्शिता एवं सज्जनता से सजाओ। अपने शिष्यों के साथ विनम्र रहो और गुरूओं के सामने सभ्य। कदापि विद्वानों के सामने स्वार्थी मत बनो, इसलिए कि इससे तुम्हारी सच्चाई समाप्त हो जाती है। इमाम जाफ़र सादिक़ का यह कथन भी एक अति मूल्यवान उपदेश है कि जो ज्ञान विनम्रता और सभ्यता के साथ न हो, विद्यार्थी को उसका कोई लाभ नहीं पहुंचता, इसलिए कि लोग स्वार्थियों से नफ़रत करते हैं और उनकी सही बातों को भी स्वीकार नहीं करते।