AhlolBayt News Agency (ABNA)

source : parstoday
बुधवार

20 मार्च 2019

4:36:05 pm
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हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा की शहादत

बसंत या बहार का मौसम प्रकृति के खिल उठने की वजह से मोर के पंख की तरह सुंदर व मनमोहक लगता और सभी को अपने सौंदर्य को देखने के लिए आमंत्रित करता है।

बहार में लहलहाती सुंदर प्रकृति को देख कर मन को ऐसी ताज़गी मिलती है जिसका शब्दों में वर्णन बहुत कठिन है। प्रकृति का विकास इंसान को परिपूर्णतः के लिए प्रेरित करती है, मानो प्रकृति इंसान को पुकार कर कह रही हो कि हे इंसान! शीत ऋतु के बाद, सुंदर बहार का मौसम तुम्हारा इंतेज़ार कर रहा है तो तुम भी कठिनाइयों के दिनों में निराश मत हो और जान लोग कि हर दुख के बाद राहत है। जैसा कि पवित्र क़ुरआन के इन्शेराह सूरे की आयत नंबर 5 और 6 में ईश्वर कह रहा हैः हर कठिनाई के बाद आसानी है। बेशक हर कठिनाई के बाद आसानी है।

बहार के आगमन के साथ प्रकृति लहलहाती है, फूल खिलते हैं, पक्षियों के गाने और बहते झरनों की आवाज़ सुनाई देती है, जो हर इंसान के मन को मोह लेती है लेकिन हज़रत ज़ैनब के लिए बहार का अर्थ दूसरा था। वह जब भी अपने भाई इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को देखतीं अपने वजूद में जोश व ख़ुशी का आभास करती थीं मानो कोई बाग़ है जो बहार के फूलों से लहलहा रहा है। भाई के चेहरे पर मुस्कुराहट उनके लिए ऐसी थी मानो किसी ने उन्हें फूलों का गुलदस्ता दे दिया और जब भाई दुखी हो तो मानो हज़रत ज़ैनब का मन दुखों से भर गया है। बहार के दिनों में इस महान हस्ती के स्वर्गवास के अवसर पर आप सबकी सेवा में हार्दिक संवेदना प्रस्तुत करते हैं।

हज़रत ज़ैनब एक चरित्रवान व पवित्र मन की महिला थीं। उनकी मां हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा और पिता हज़रत अली अलैहिस्सलाम जैसी महान हस्ती थी। वह 5 या 6 हिजरी क़मरी में पैदा हुयीं। वह इमाम हसन और इमाम हुसैन की बहन और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम की नवासी हैं। पैग़म्बरे इस्लाम ने उनका नाम ज़ैनब रखा जिसका अर्थ होता है पिता की शोभा। उनकी मीठी ज़बान से निकली हुयी वाणी सुनकर हज़रत फ़ातेमा ज़हरा और हज़रत अली अलैहिस्सलाम उत्साहित हो जाते थे। इतिहास के अनुसार, हज़रत ज़ैनब बचपन में ही पवित्र क़ुरआन और धार्मिक शिक्षाएं हासिल कर चुकी थीं और पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजन उन्हें आलेमा की उपाधि से बुलाते थे जिसका अर्थ होता है बहुत विद्वान। उन्होंने बचपन में ही क़ुरआन की आयतें याद कर ली थीं और पिता हज़रत अली और मां हज़रत फ़ातेमा ज़हरा के प्रशिक्षण में पवित्र क़ुरआन के गूढ़ अर्थों से परिचित हुयीं।  

हज़रत ज़ैनब बचपन से ही परिवार के सभी सदस्यों के लिए मेहरबान व हमदर्द बेटी थीं और परिवार के सभी सदस्य उन्हें चाहते थे। ज्ञान, पवित्रता और लज्जा से सुशोभित व्यक्तित्व की वजह से हज़रत ज़ैनब सम्मानित हस्ती थीं। लेकिन हज़रत ज़ैनब ने अभी बचपन का थोड़ा ही आनंद लिया था कि दुनिया के कुरुप से परिचित हो गयीं। मां हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा की शहादत से वे समझ गयी थीं कि उन्हें धैर्य अपनाना होगा। जिस समय उनकी मां की शहादत हुयी हज़रत ज़ैनब की उम्र 4 साल थी लेकिन उसी समय से वह पिता और भाई के दुखों में हमदर्द बनीं और ख़ुद को कठिनाइयों के लिए और अधिक तय्यार किया। हज़रत ज़ैनब जवानी में ही ज्ञान, सूझबूझ, पवित्रता और सदाचारिता के लिए मशहूर हो गयी थीं। जब उनकी शादी का वक़्त आया तो लड़कों के बीच ऐसी हस्ती को जीवन साथी बनाने के लिए प्रतिस्पर्धा शुरु हुयी। वह विद्वान, चरित्रवान, लज्जावान, सुशील व मेहरबान थीं और पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों की छत्रछाया में पली बढ़ी थीं। हज़रत ज़ैनब कूफ़े में महिलाओं को पवित्र क़ुरआन की आयतों की व्याख्या की शिक्षा देती थीं।

हज़रत ज़ैनब का हाथ मांगने वालों में उनके चचेरे भाई हज़रत अब्दुल्लाह बिन जाफ़रे तय्यार उनकी और उनके पिता हज़रत अली की मर्ज़ी हासिल करने में सफल हुए। उन्होंने शादी के लिए अपने होने वाले पति के सामने एक शर्त रखी थी वह यह कि वह हर दिन अपने भाई इमाम हुसैन से मुलाक़ात करने जाया करेंगी जिन्हें वह बहुत अधिक चाहती थीं। हर रोज़ भाई से मुलाक़ात करना हज़रत ज़ैनब की आरज़ू थी और भाई को देख कर पूरे वजूद में प्रफुल्लता का आभास करती थीं।

रात भर ईश्वर की उपासना करना और तहज्जुद या नमाज़े शब पढ़ना, हज़रत ज़ैनब के सुदंर व्यवहार की विशेषता थी। हज़रत ज़ैनब नमाज़े शब की इतनी पाबंद थीं कि उन्होंने आशूर के दिन इतनी बड़ी घटना घटने के बाद भी आशूर की घटना से पहले वाली और आशूर की रात को भी नमाज़े शब पढ़ी। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की बेटी जिनका नाम भी फ़ातेमा था, कहती हैं कि फुफी ज़ैनब आशूर से पहले वाली रात को पूरी रात ईश्वर की उपासना करती रहीं। इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैः "मैंने फुफी ज़ैनब को सिर्फ़ आशूर की घटना के बाद आने वाली रात को बैठ कर नमाज़े शब पढ़ते हुए देखा।" हज़रत ज़ैनब ईश्वर के इतना निकट थीं कि इमाम हुसैन जब आशूर के दिन शहादत देने के लिए विदा होने लगे तो उन्होंने बहन ज़ैनब से कहा था "मेरी बहन मुझे नमाज़े शब की दुआ में भूल न जाना।"          

अपने भाई इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से इतनी मोहब्बत के बाद भी जब हज़रत ज़ैनब ने आशूर के दिन इमाम हुसैन के ख़ून से लथपत शव को देखा तो उसके क़रीब जाकर आसमान की ओर मुंह करके कहाः "ईश्वर इस बलिदान और अपने मार्ग में शहीद होने वाले को पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों से स्वीकार कर।" आशूर और उसके बाद इमाम हुसैन के घरवालों के कारवां में जिसे यज़ीद की फ़ौज ने बंदी बनाया था, हज़रत ज़ैनब की मौजूदगी और फिर कई जगहों पर यज़ीद के अस्ली चेहरे से नक़ाब उठाने वाले अपने भाषण से हज़रत ज़ैनब ने कर्बला की घटना को अमर बना दिया। हज़रत ज़ैनब ने कूफ़ा और दमिश्क़ में यजीद़ के दरबार में जागरुक बनाने वाले अपने भाषण से सत्य पर पड़ी गर्द को साफ़ किया। उन्होंने जब ईश्वरीय दायित्व को महसूस किया तो कूफ़े के मर्द नज़र आने वाले कायरों के बीच ऐसा भाषण दिया कि लोक हतप्रभ थे। जब कर्बला के बंदियों का कारवां कूफ़ा शहर पहुंचा और कूफ़ी इमाम हुसैन के साथ की गयी अपनी ग़द्दारी पर रो रहे थे तो हज़रत ज़ैनब ने ऊंची आवाज़ से कहाः हे कूफ़ा वालो! हे धोखेबाज़ व मदद न करने वालो! तुम्हारी आंखे हमेशा रोए और तुम्हारे रोने की आवाज़ बुलंद हो। तुमने क़सम को धोखे का हथकंडा बनाया। क्या तुम्हारे बीच गंदी चापलूसी और दुश्मनी से भरे मन वालों के अलावा भी कुछ है?

हुज़ैम बिन शरीक अलअसदी कूफ़े में हज़रत ज़ैनब के भाषण के बारे में कहते हैः "उस दिन मैने अली की बेटी ज़ैनब को देखा। ईश्वर की सौगंध! किसी को ज़ैनब की तरह सक्षम वक्ता नहीं देखा। मानो अमीरुल मोमेनीन अली बिन अबी तालिब की ज़बान में भाषण दे रही हैं। लोगों को फटकार कर कहा कि चुप हो जाओ! इस फटकार पर न सिर्फ़ पूरी भीड़ ख़ामोश हो गयी बल्कि ऊंट की गर्दन में बजने वाली घंटियों की आवाज़ भी थम गयी।"

हज़रत ज़ैनब ने ऐसी हालत में अपने भाषण में बहुत ही सुंदर भाषा व अंदाज़ में उस दौर के इस्लामी समाज की स्थिति सटीक को समीक्षा की। उन्होंने अपने भारी व्यक्तित्व से सत्य के सौंदर्य को स्पष्ट किया और लोगों को यज़ीद के अत्याचार से सूचित किया। इस भाषण से कूफ़े में हलचल मच गयी। मानो शासन के ख़िलाफ़ क्रान्ति आ जाएगी। इस वजह से यज़ीदी सेना के कमान्डर ने अत्याचारी शासन के ख़िलाफ़ क्रान्ति को रोकने के लिए पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजन के परिवार के सदस्यों को शासक उबैदुल्लाह बिन ज़्याद के दरबार में भेज दिया।

हज़रत ज़ैनब की बातों से यज़ीद के दरबार में मौजूद लोगों पर इतना प्रभाव पड़ा कि यज़ीद ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के क़त्ल के अपराध को इबने ज़्यादा की गर्दन पर डाल कर उसे धिक्कारा और अपने ख़िलाफ़ विद्रोह को रोकने के लिए बंदियों के कारवां को सम्मान से कर्बला भेजा।     

इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ामेनई हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा के व्यक्तित्व के बारे में कहते हैः "हज़रत ज़ैनब इतिहास की ऐसी नमूना हस्ती हैं कि वह इतिहास के सबसे अहम मामलों में से एक मामले में एक महिला की मौजूदगी की अहमियत को ज़ाहिर करती हैं। यह जो कहा जाता है कि आशूर की घटना में कर्बला की घटना में तलवार पर ख़ून विजयी हुआ, वास्तव में विजयी हुआ। इस विजय की सूत्राधार हज़रत ज़ैनब थीं वरना कर्बला की घटना वहीं दब कर रही जाती। सैन्य घटना जो कर्बला में सत्य की फ़ोर्सेज़ की विदित रूप से हार के रूप में ख़त्म हुयी, लेकिन जो चीज़ इस विदित हार के अमर रहने वाली जीत में बदलने का कारण बनी वह हज़रत ज़ैनब की हस्ती थी। हज़रत ज़ैनब ने जो रोल अंजाम दिया, बहुत अहम है। इस घटना ने यह दर्शा दिया कि महिला इतिहास में हाशिये पर नहीं बल्कि अहम ऐतिहासिक घटनाओं की सूत्राधार है।"

हज़रत ज़ैनब भाइयों, बेटों, भतीजों, बनी हाशिम के जवानों की शहादत और क़ैदी बनने की मुसीबत उठाने के बाद, 15 रजब वर्ष 2 हिजरी क़मरी को इस नश्वर संसार से गुज़र गयीं। उन्हें उम्मुल मसाएब भी कहा जाता है। वतन से दूर दमिश्क़ में उनका स्वर्गवास हुआ। उनकी आत्मा पैग़म्बरे इस्लाम और पवित्र परिजनों के साथ जा मिली ताकि एक बार फिर अपने भाई हुसैन को देख कर अमर रहने वाली बहार का अनुभव करें। इस महान हस्ती के रौज़े के दर्शन के अवसर पर पढ़ी जाने वाली विशेष वंदना में पढ़ते हैः हे मेरी सरदार! ईश्वर के निकट हमारी सिफ़ारिश कीजिए ताकि मुझे भी स्वर्ग मिले। आपका ईश्वर के निकट बड़ा स्थान है।