AhlolBayt News Agency (ABNA)

source : parstoday
गुरुवार

20 सितंबर 2018

9:11:22 am
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पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने फ़रमाया है, क़सम है उस ज़ात की जिसने मुझे दूत बनाकर भेजा है, हुसैन इब्ने अली का महत्व ज़मीन से अधिक आसमान में है, ईश्वरीय अर्शे के दाहिनी ओर लिखा हुआ है, हुसैन मार्गदर्शन का दीप और मुक्ति प्रदान करने वाली नाव हैं।

मोहर्रम महीने का दसवां दिन है। ऐसा दिन कि जब इमाम हुसैन (अ) और उनके साथी यज़ीद की फ़ौज से लड़ते हुए शहीद हो गए। इमाम हुसैन इस दिन अपने थोड़े से वफ़ादार और ईश्वर में गहरी आस्था रखने वाले साथियों के साथ अत्याचारी एवं भ्रष्ट यज़ीद के पत्थर दिल सैनिकों के मुक़ाबले के लिए उठ खड़े हुए और उन्होंने कर्बला को हमेशा के लिए प्रेम और आज़ादी का केन्द्र बना दिया।

दूसरे युद्धों की तुलना में आशूरा का संघर्ष लम्बा नहीं है और उसका आरम्भ एवं अंत आधे दिन में सीमित है लेकिन उसका प्रभाव अंतहीन है और इस प्रकार से उसने लोगों के विवेक और दिलों पर असर डाला है कि उसके बाद से प्रतिवर्ष मोहर्रम के दस दिन विशेष रूप से आशूर के दिन इमाम हुसैन (अ) से प्रेम, श्रद्धा और अक़ीदत अपने चरम पर पहुंच जाती है। इस दिन शिया मुसलमान, आम मुसलमान और ग़ैर मुस्लिम भी इमाम हुसैन की महान क़ुर्बानी के सामने नतमस्तक होते हैं और उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

मानव इतिहास में विभिन्न युद्ध हुए हैं। असंख्यक लोग मारे गए हैं और उनके घरों को उजाड़ा गया है। इन युद्धों के दहकते हुए शोलों में छोटे, बड़े, महिलाएं और पुरुष जलकर भस्म हो गए हैं। जैसा कि पहले और दूसरे विश्व युद्ध में 3 करोड़ से अधिक लोग काल के गाल में समा गए, लेकिन क्या कभी सुना है कि विश्व में कहीं भी इन लोगों के लिए कर्बला के शहीदों की भांति शोक सभाएं आयोजित की जाती हों और उन्हें याद किया जाता हो।

सच्चाई यह है कि इमाम हुसैन (अ) को कर्बला में केवल एक विशाल सेना का सामना नहीं था, बल्कि इमाम हुसैन को एक भ्रष्ट एवं अंधेरे में डूबी हुई दुनिया का सामना था। लालच, अहंकार, भ्रष्टाचार और अनैतिकता ने लोगों को बेग़ैरत और कमज़ोर बना दिया था और उनसे उनके धार्मिक कर्त्वय के एहसास को छीन लिया था। इमाम हुसैन (अ) मोह माया की दुनिया और दबाव के सामने नहीं लड़खड़ाए और किसी भी प्रकार के संदेह या कमज़ोरी का प्रदर्शन नहीं किया।

आशूर के संघर्ष में एक सबसे अहम बिंदु गौरव, अभिमान और सम्मान है। इमाम हुसैन (अ) के निकट, सम्मानजनक और गौरवपूर्ण जीवन अर्थपूर्ण एवं सुन्दर है। जीवन ईश्वर की ओर से वरदान है और जीवन का अधिकार समस्त इंसानों के लिए सुरक्षित रखा गया है। किसी भी तरह से लोगों के जीवन को ख़तरे में डालना निंदनीय है और अगर किसी पर कोई अत्याचार हो रहा है तो उसके लिए ज़रूरी है कि वह ज़ुल्म और अत्याचार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाए। क़ुराआन कहता है कि जो कोई ऐसा नहीं करता है वह अपने ऊपर ज़ुल्म करता है। क़ुरान के सूरए निसा की 97वीं आयत में उल्लेख है कि फ़रिश्ते पीड़ितों से पूछेंगे, लौकिक जीवन में तुम्हारी स्थित क्या थी? वे जवाब देंगे, हम ज़मीन पर कमज़ोर थे। वे पूछेंगे, क्या ईश्वर की धरती विशाल नहीं थी, ताकि कहीं दूसरी जगह पलायन कर जाते? इसलिए वे उन लोगों में से हैं, जिनका ठिकाना नरक है और उनका भविष्य बुरा है।

आशूर का संघर्ष, हक़ और बातिल अर्थात सत्य और झूठ के बीच लड़ाई है और यह ईश्वर के मार्ग में बलिदान और क़ुर्बानी का दिन है। इसी तरह से यह अध्यात्म और नैतिकता का दिन है। हमेशा से ही साहस, वीरता, आत्मा की महानता और स्वस्थ विचारों को इंसान ने पंसद किया है, यही कारण है कि आज़ादी और न्याय कभी भी ज़ुल्म और अत्याचार के सामने नतमस्तक नहीं होते हैं। दूसरे शब्दों में दुनिया में न्याय, क़ुर्बानी और प्रेम अमर सिद्धांत हैं, जिनमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता, जब भी कोई इन विशिष्टताओं के लिए प्रतिरोध करेगा और इस मार्ग में अटल रहेगा वह सफल एवं अमर हो जाएगा।

इमाम हुसैन (अ) के सामने ऐसी परिस्थितियां थीं, जहां लालच, अपमान और काम वासना जैसी कमज़ोरियों ने स्पष्ट होकर इमाम के मार्ग में रुकावट डालना चाही। ऐसी परिस्थितियों में इमाम ने सचेत किया कि हे ईश्वर के बंदों, ईश्वर से डरो और दुनिया के प्रति सजग रहो, क्योंकि अगर पूरी दुनिया किसी एक व्यक्ति को दी जाती और या कोई एक व्यक्ति हमेशा के लिए इस दुनिया में बाक़ी रहता, तो इसके लिए सबसे उचित व्यक्ति ईश्वरीय दूत होते, इसलिए परलोक के लिए कुछ पूंजी जमा कर लो और परलोक के लिए बेहतरीन पूंजी ईश्वरीय भय है। ईश्वर से डरो, इस प्रकार तुम सफल हो जाओगे।

ऐसे ईमान वाले और बलिदानी पुरुषों और महिलाओं ने कि जो अपने इमाम की पहचान में चरम पर पहुंच गए थे, मानवीय मान सम्मान की सुरक्षा के लिए, दुनिया की सुन्दरता और आनंद की उपेक्षा की और इमाम हुसैन (अ) के मार्ग में क़दम आगे बढ़ाए। वे जानते थे कि इमाम, प्रेम के सौर्य मंडल का ध्रुव हैं। उन्हें इंसानों के कल्याण और मुक्ति की चिंता है। वे इंसान के विचारों एवं आत्मा की शद्धता के बारे में इस हद तक सोचते हैं कि फ़रमाते हैं, अपनी ज़बान पर कोई ऐसी बात नहीं लाओ, जो तुम्हारे महत्व को घटा दे। जो कोई भी ऐसे इमाम के साथ चलेगा, वह मुक्ति हासिल कर लेगा और जो कोई उसे छोड़ देगा, उसे भटकने के अलावा कुछ हासिल नहीं होगा।

उस दिन अच्छाई और बुराई के बीच आध्यात्मिक संघर्ष में एक विशाल सेना के मुक़ाबले में मुट्ठी भर लोगों की जीत हुई और अज्ञानता, ज्ञान पर विजय प्राप्त नहीं कर सकी। इमाम हुसैन और उनके साथियों ने आशूर के दिन कड़ी भूख और प्यास में आख़िरी सांस तक जंग की और शहादत हासिल की। इस प्रकाशमय कारवान के बचे खुचे लोगों को, जिसमें बच्चे, महिलाएं और बीमार थे, क़ैदी बना लिया गया और सबसे पहले कूफ़ा ले जाया गया। इमाम हुसैन के 72 साथियों ने मानव इतिहास में क़ुर्बानी, बलिदान और वीरता का सबसे बड़ा उदाहरण पेश किया और इतिहास के पन्नों में लोगों के दिलों में अमर हो गए।

इमाम हुसैन (अ) के प्रतिरोध ने मानवीय समाज में राजनीतिक एवं सामाजिक जागरुकता और क्रांति उत्पन्न कर दी, जिसके बाद इस्लामी जगत में ज़ुल्म और अत्याचार के ख़िलाफ़ प्रतिरोध का एक सिलसिला शुरू हो गया। कर्बला में इमाम हुसैन की क्रांति ने अंतहीन आंदलोनों को जन्म दिया। विशेष रूप से इस्लामी जगत में ज़ालिम एवं अत्याचारी शासकों के ख़िलाफ़ आंदोलनों का सिलसिला कर्बला की लड़ाई के स्पष्ट एवं चमत्कारी परिणामों में से एक है।

वास्वत में आशूर का आंदोलन, केवल इस्लाम को जीवित रखने के लिए नहीं था, बल्कि मानवा और उसकी आज़ादी को सुनिश्चित बनाने के लिए था। आज दुनिया के कोने कोने में या हुसैन की आवाज़ें गूंज रही हैं, जो इमाम हुसैन की शहादत और प्रतिरोध के सफल होने का ज़िंदा सुबूत है।

आशूर के प्रतिरोध को एक दीर्घकालिक और एक ऐसे प्रतिरोध के रूप में देखना चाहिए जिसने पूरे विश्व को प्रभावित किया है और रहती दुनिया तक हर इंसानफ़ पसंद इंसान इससे प्रभावित होकर ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता रहेगा। दुनिया के कई देशों में लोगों ने कर्बला की घटना से प्रेरित होकर अत्याचारी शासन को उखाड़ फेंका और न्याय के शासन की स्थापना की।

ईरान की इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैय्यद अली ख़ामेनई मोहर्रम को इस्लाम के बाक़ी रहने का कारण मानते हैं। वे कहते हैं, अन्यायपूर्ण तरीक़े से बहाए गए उस ख़ून का असर दुनिया में हमेशा बाक़ी रहेगा, इसलिए शहीद वह है कि जो अपनी जान को पूर्ण श्रद्धा के साथ उच्च उद्देश्यों के लिए क़ुर्बान कर देता है। धोखेबाज़ लोग, ज़बान से कितना भी हक़ और सत्य का समर्थन कर लें, जब उनके व्यक्तिगत हित विशेष रूप से ख़ुद उनकी और परिजनों की जान पर आंच आती है, तो क़दम पीछे खींच लेते हैं और इसे क़ुर्बान करने के लिए तैयार नहीं होते। जो लोग अपनी जान क़ुर्बान करने के लिए मैदान में क़दम रखते हैं और सच्चे दिल से अपनी जान ईश्वर के मार्ग में दे देते हैं, ईश्वर ने ऐसे लोगों से वादा किया है कि वह उन्हें अमर कर देगा, इसलिए वे मरते नहीं हैं, बल्कि ज़िंदा रहते हैं। ज़िंदा रहने का एक आयाम यह है कि उनकी निशानी कभी ख़त्म नहीं होती, उनके क़दमों के निशान कभी नहीं मिटते और उनका झंडा कभी नहीं झुकता है। संभव है कुछ दिन के लिए शक्ति के बल पर उनका रंग कम कर दिया जाए, लेकिन ईश्वर ने सच्चाई और सत्य को इस प्रकार से सुरक्षित रखा है। ईश्वरीय व्यवस्था यही है कि भले लोगों का मार्ग बाक़ी रहे। श्रद्धा एक अजीब चीज़ है, इसीलिए इमाम हुसैन (अ) की बरकत और अन्यायपूर्ण ढंग से बहाए गए उस महान हस्ती और उसके साथियों के ख़ून के कारण धर्म और ईमान दुनिया में बाक़ी रहा और बाक़ी है।

इसी कारण, महान बुधिजीवी इमाम हुसैन (अ) के सामने नतमस्तक करते हैं। ईसाई बुद्धिजीवी एंटन बर्रा इमाम हुसैन (अ) के प्रतिरोध की महानता का उल्लेख करते हुए कहता है, अगर हुसैन हममें से होते, तो हर जगह उनका झंडा फैराते और गांव गांव में उनका मिंबर तैयार करते और लोगों को हुसैन के नाम पर ईसाई धर्म की ओर आमंत्रित करते।