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मंगलवार

20 जून 2023

5:03:50 pm
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अमीरुलमोमेनीन हज़रत अली अलै. और हज़रते फ़ातेमा ज़हरा स. की शादी।

आज जनाब सैयदा और मौलाए कायनात की शादी की तारीख़ है। यह एक आसमानी मिलन, आत्मा की गहराईयों का एक रिश्ता और ज़िंदगी का एक ऐसा बंधन था जिसकी खुशी ज़मीन पर भी मनाई गई और आसमान पर भी, एक ऐसा निकाह जो जन्नत में फ़रिश्तों के सरदार ने फ़रिश्तों के बीच पढ़ा और ज़मीन पर नबियों के सरदार ने इंसानों के बीच। हज़रत फ़ातिमा ज़हरा स. और मौलाए कायनात की वैवाहिक ज़िंदगी के

अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली अ. और हज़रत ज़हरा की शादी।

आज जनाब सैयदा और मौलाए कायनात की शादी की तारीख़ है। यह एक आसमानी मिलन, आत्मा की गहराईयों का एक रिश्ता और ज़िंदगी का एक ऐसा बंधन था जिसकी खुशी ज़मीन पर भी मनाई गई और आसमान पर भी, एक ऐसा निकाह जो जन्नत में फ़रिश्तों के सरदार ने फ़रिश्तों के बीच पढ़ा और ज़मीन पर नबियों के सरदार ने इंसानों के बीच।

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा स. और मौलाए कायनात की वैवाहिक ज़िंदगी के बारे में हम यहां कुछ महत्वपूर्ण बाते बयान करेंगे।

आइडियल शादी

वह इंसानी कमाल जो इंसान को वैवाहिक ज़िंदगी में हासिल होते हैं उन्हें हासिल करने और जीवन की कठिनाइयों को पार करने के लिए अगर हम मौलाए काएनात और शहज़ादी-ए-कौनैन हज़रत ज़हरा स. की ज़िंदगी को ध्यान में रखें और जो सिद्धांत उनके जीवन में पाए जाते थे उन सिद्धांतों के अनुसार ज़िंदगी गुज़ारें तो हमें वह कमाल भी हासिल हो जाएंगे और ज़िंदगी की कठिनाइयों से लड़ने का सलीका भी आ जाएगा।

आज के ज़माने में इन हस्तियों को कैसे आदर्श बनाया जाए?

एक महत्वपूर्ण सवाल यह उठाया जाता है कि हम आज से चौदह सौ साल पहले ज़िंदगी बसर करने वाली उन हस्तियों को कैसे अपने आदर्श बना सकते हैं? वह एक ख़ास ज़माने में और अरब के एक विशेष माहौल में ज़िंदगी बसर कर रहे थे, जहां की मांगें और हालात आज की मांगों और परिस्थितियों से बिल्कुल अलग थीं, तो हम उन जैसी ज़िंदगी कैसे गुज़ार सकते हैं?

इसका संक्षिप्त उत्तर यह है कि हमें उनकी जैसी जिंदगी नहीं जीना है। निसंदेह आज के हालात और आज की मांगें, उस ज़माने से अलग हैं। तो हमें करना क्या है? उन महान हस्तियों के जीवन से लेना क्या है? इसका जवाब यह है कि इंसानी ज़िंदगी के कुछ ऐसे सिद्धांत होते हैं जो हमेशा साबित रहते हैं, कभी बदलते नहीं हैं, कभी उनमें बदलाव नहीं आता बल्कि हमेशा एक जैसे रहते हैं। जैसे सच्चाई एक ऐसा सिद्धांत है जो हर युग में एक साबित सिद्धांत था, ऐसा नहीं है कि कल सच्चाई की ज़रूरत थी, आज नहीं है। या वफ़ादारी ज़िंदगी का एक साबित सिद्धांत है, ऐसा नहीं है कि कल वफ़ादारी अच्छी बात थी और आज बेवफ़ाई अच्छी हो गई हो या वफ़ादारी बुरी बात समझी जाती है। हमें मासूमीन अ. की ज़िंदगी से इस तरह के सिद्धांत लेने हैं और उनके अनुसार आज की मांगों और जरूरतों को ध्यान में रखते हुए ज़िंदगी गुज़ारनी है।

हज़रत ज़हरा स. और इमाम अली अ. की वैवाहिक ज़िंदगी के सिद्धांत।

अब हम यह देखेंगे कि हज़रत ज़हरा स. और इमाम अली अ. के संयुक्त जीवन और वैवाहिक जीवन में कौन से सिद्धांत पाए जाते थे और हम कैसे उन पर अमल कर सकते हैं?

1. अल्लाह तआला का अनुसरण और उसकी इताअत

इन दोनों हस्तियों के जीवन का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत ख़ुदा के हुक्म का पालन और उसकी खुशी हासिल करना थी। उन्होंने अपने जीवन का उद्देश्य ख़ुदा को बनाया था और उसकी इताअत व इबादत में एक दूसरे का साथ देते थे। एक बार रसूले अकरम स. ने इमाम अली अ. पूछा: आपने अपनी बीवी को कैसा पाया? तो आपने एक वाक्य में हज़रत ज़हरा के पूरे व्यक्तित्व को बयान कर दिया और कहा:

’نِعمَ العَونُ فِی طَا عةِ اللهِ

अल्लाह की आज्ञाकारिता में सर्वश्रेष्ठ सहायक पाया। क्या आज के ज़माने में यह सम्भव नहीं है? क्या जीवन साथी अल्लाह की इबादत, उसकी आज्ञाकारिता, उसकी खुशी में एक दूसरे की मदद नहीं कर सकते? क्या हम यह कह सकते हैं कि इसका संबंध केवल उस ज़माने से था, आज की मांग कुछ और है? कदापि नहीं इंसान कल भी ख़ुदा की आज्ञाकारिता और इबादत का मोहताज था और आज भी है। और अगर आज भी हमारे साझा जीवन का उद्देश्य दुनिया न हो बल्कि अल्लाह तो हमारी कितनी समस्याओं का समाधान हो सकता है। इस पर ध्यान देने की ज़रूरत है।

2. संतोष और सादगी

हज़रत फ़ातिमा ज़हरा स. और हज़रत अली अ. के जीवन का एक सिद्धांत संतोष और सादगी था। संतोष का क्या मतलब है? संतोष यानी इंसान केवल ज़रूरत भर इस्तेमाल करे, जितना उसे मिल रहा है उस पर राज़ी रहे और जितना हो सकता है अपनी आवश्यकताओं को सीमित करे और एक सादा ज़िंदगी जिए। इसका मतलब यह नहीं है कि इंसान के पास अच्छा घर न हो, वह अच्छी कार इस्तेमाल न करे, अच्छा कपड़ा न पहने, अच्छा खाना न खाए बल्कि संतोष और सादगी का मतलब यह है कि हमारे ज़िंदगी में इसराफ़ और फ़ालतू ख़र्चे न हों, झूठी जरूरतों को हम जीवन का हिस्सा न बनाएं, हर चीज़ को अपने जीवन की जरूरत समझ उसके पीछे न दौड़ पड़ें और ज़िंदगी को दुनिया के झमेलों में इतना उलझा न दें कि जीवन के मूल उद्देश्य से बेखबर हो जाएँ। हज़रत अली अ. और हज़रत फातिमा स. के पास माल व दौलत की कमी नहीं थी, उनके पास माल था लेकिन वह दुनिया में डूबे नहीं थे बल्कि इससे केवल इतना ही लेते थे जितना उनकी आवश्यकता थी, बाकी सब अल्लाह के रास्ते में जरूरतमंदों को दे दिया करते थे। क्या आज के दौर में आदमी अपनी इच्छाओं को कंट्रोल नहीं कर सकता? क्या आज संतोष का ज़माना ख़त्म हो गया है? क्या आज पैसे और दौलत होते हुए सादगी से नहीं जिया जा सकता? क्या आज भी अगर हम अपने जीवन के विभिन्न मामलों में इसराफ़ से बचें और जरूरतमंदों को उनका हक दें तो समाज की बहुत सारी समस्याओं का समाधान नहीं हो जाएगा?

3.मोहब्बत व रहमत

क़ुरआन के अनुसार शादी के नतीजे में पति और पत्नी के बीच ख़ुदा ने जो कुछ क़रार दिया है वह है मोहब्बत और दया है। यही वह बात है जिसके आधार यह रिश्ता मज़बूत होता है और वैवाहिक जीवन की गाड़ी आगे बढ़ती है। इमाम सादिक अ. की हदीस के अनुसार मोमिन के ईमान में जितनी बढ़ोत्तरी होती है उतना ही अपनी जीवन साथी से उसका प्यार बढ़ता है और दूसरी ओर वह जितना अपने जीवन साथी से प्यार करता है उसका ईमान भी बढ़ता जाता है। हज़रत फातिमा और इमाम अली अ. का ईमान कामिल और पूरा था, इसलिए उनके बीच मोहब्बत भी कामिल थी। अक्सर घरों में या मर्द का राज चलता है या औरत का। इसलिए बहुत सारी समस्याएं पैदा होती हैं। लेकिन अगर मौहब्बत का राज हो, दया और कृपा पाई जाए तो बहुत सारी समस्याएं पैदा ही नहीं होंगी। हज़रत अली अ. फ़रमाते हैं: जब मैं फातिमा स. को देखता था तो मेरे दिल से दुख व ग़म गायब हो जाते थे। यह प्यार का ही कमाल है कि इंसान अपने दुखः दर्द को भूल जाए और जहां जीवन साथी ऐसा हो वहाँ बड़ी से बड़ी मुश्किल भी आसान हो जाती है।

4. एक दूसरे का सहयोग

एक सफल वैवाहिक जीवन के लिए ज़रूरी है कि घर की जिम्मेदारियां और काम बाट लिए जाएँ। कछ काम पति के जिम्मे हों और कुछ पत्नी के जिम्मे। ताकि सारा बोझ एक के कंधों पर न पड़े। अलबत्ता इसका मतलब यह नहीं है कि वह उन जिम्मेदारियों में एक दूसरे का साथ न दें और एक दूसरे का सहयोग न करें बल्कि ज़रूरी है कि जहां पति पत्नी के कामों में उसका हाथ बंटा सकता है, उसका हाथ बटाए और अगर पत्नी पति के कामों में उसकी मदद कर सकती है तो ज़रूर करे। रसूले इस्लाम स.अ ने हज़रत अली और हज़रत ज़हरा के बीच घर के कामों को इस तरह बांटा था कि घर के अंदर के काम हज़रत ज़हरा स. अंजाम देंगी और घर से बाहर के काम हज़रत अली अ. अंजाम देंगे। हज़रत फ़ातिमा इस पर बहुत खुश हुईं कि अल्लाह के रसूल ने मुझे बाहर के कामों से माफ़ रखा। अब घर के काम हज़रत ज़हरा अंजाम देतीं और घर के बाहर के काम हज़रत अली अ. लेकिन हज़रत जब घर आते तो घर में भी हज़रत फ़ातेमा स. का हाथ बटाया करते थे। आज अगर हर पति घर के कामों में पत्नी का हाथ बंटाने को अपना सिद्धांत बना ले तो वह बच्चों का प्रशिक्षण भी कर सकेगी और घर के कामों को भी बखूबी अंजाम दे सकेगी।

5. पति की आज्ञाकारिता

पति की आज्ञाकारिता पत्नी पर वाजिब है अलबत्ता इसका मतलब यह नहीं है कि पति जिस तरह चाहे पत्नी को अपनी दासी बना कर रखे और उसे हर काम के लिए मजबूर करे, बल्कि आज्ञाकारिता तभी हो सकती है जब पति से कोई ज़ोर ज़बरदस्ती न हो और औरत मर्ज़ी और चाहत से हर काम करे। हज़रत फातिमा स. पूरी तरह से अपने पति हज़रत अली की इताअत करती थीं। आप कभी भी हज़रत अली अ. की मर्जी के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाती थीं और आपने उन्हें कभी नाराज़ नहीं किया। हज़रत अली अ. कहते हैं:

“ख़ुदा की क़सम! मैंने कभी फातिमा को नाराज नहीं किया और फातिमा ने भी कभी ऐसा काम नहीं किया जिससे मुझ गुस्सा आए। और उन्होंने कभी मेरी किसी बात का विरोध नहीं किया।“