बल्कि यह फ़ोन इसलिए भी था कि इस्लामी जगत में तेज़ी से बढ़ रही तुर्की की भूमिका पर भी बात हो जिसके चलते सऊदी अरब की भूमिका सीमित होती जा रही है। सऊदी अरब की चिंता इसलिए भी बढ़ गई है कि अमरीका में ट्रम्प का शासन समाप्त हो गया है और आज़रबाइजान-आर्मीनिया की हालिया जंग में तुर्की की भूमिका निर्णायक साबित हुई है।
सऊदी अरब और तुर्की के आपसी संबंध इस समय जिस संकट से गुज़र रहे हैं उसकी कोई और मिसाल नहीं है। इसके पांच बड़े कारण हैं।
एक कारण सऊदी अरब की ओर से तुर्क उत्पादों के बहिष्कार का एलान है। सऊदी अरब ने अपने नागरिकों को कड़ी चेतावनी दी है कि तुर्की के बने हुए सामान न ख़रीदें और पर्यटन के लिए तुर्की न जाएं। इससे तुर्की की अर्थ व्यवस्था को काफ़ी नुक़सान पहुंचा है।
दूसरा कारण सऊदी अरब के धर्मगुरुओं की काउंसिल की ओर से मुस्लिम ब्रादरहुड को आतंकी घोषित किया जाना है। तुर्की मुस्लिम ब्रदरहुड का समर्थक है क्योंकि यह आंदोलन अरब जगत में तुर्की का मज़बूत राजनैतिक हथियार है।
तीसरा कारण कराबाख़ संकट में तुर्की का सफल और निर्णायक हस्तक्षेप है। तुर्की ने इस संकट में आज़रबाइजान का साथ दिया जबकि सऊदी अरब अप्रत्यक्ष रूप से आर्मीनिया का समर्थन कर रहा था। इस घटना से इस्लामी जगत में तुर्की की स्थिति मज़बूत हुई है।
चौथा कारण सऊदी अरब-क़तर विवाद में तुर्की का क़तर के साथ खड़ा होना है। तुर्की ने क़तर में सैनिक छावनी बनाई है जहां उसके तीस हज़ार सैनिक तैनात हैं।
पांचवां कारण तुर्की की ओर से सऊदी पत्रकार जमाल ख़ाशुक़जी हत्या कांड को सऊदी अरब के ख़िलाफ़ बार बार इस्तेमाल किया जाना है। इस तरह पूरी दुनिया में सऊदी अरब की छवि बहुत ख़राब हो चुकी है।
सऊदी अरब को इस समय सबसे बड़ी चिंता यह है कि तुर्की आज़रबाइजान में विजय हासिल करने के बाद अब दो बुनियादी मुद्दों में हाथ डाल सकता है। एक यमन युद्ध है और दूसरा इस्लामी जगत में सऊदी अरब की लीडरशिप है। चूंकि सऊदी अरब में मक्का और मदीना जैसे पवित्र शहर स्थित हैं इसलिए वह ख़ुद को इस्लामी जगत का नेता समझता है।
राष्ट्रपति अर्दोग़ान के बेहद क़रीबी सलाहकार यासीन अक़ताई ने सत्ताधारी पार्टी से जुड़े अख़बार यनी शफ़क़ में एक लेख लिखा जिसे तुर्की समर्थक सारी वेबसाइटों ने शेयर किया। इस लेख का शीर्षक था जिस तरह लीबिया और आज़रबाइजान को मुक्ति दिलाई...अब क्या सऊदी अरब के सैनिक आप्रेशन से यमनी राष्ट्र को बचाने के लिए हस्तक्षेप करेगा तुर्की?
हमारे विचार में यह लेख सऊदी अरब और इमारात दोनों के लिए ख़तरनाक वार्निंग हैं। इसलिए कि अगर तुर्की ने यमन युद्ध में हस्तक्षेप शुरू कर दिया तो सारे राजनैतिक और सामरिक समीकरण बदल जाएंगे।
डाक्टर अक़ताई ने कहा कि यमन में पांच साल से ज़्यादा समय से सऊदी अरब और इमारात के हस्तक्षेप के नतीजे में यह संकट बहुत जटिल रूप में पहुंच गया है जहां इसका समाधान असंभव होकर रह गया हैं। सऊदी अरब और इमारात ने यमन के आंतरिक मतभेद में छलांग लगाई कि मंसूर हादी की मदद करें और अंसारुल्लाह आंदोलन को शिकस्त दें मगर इतने साल के बाद साबित हो गया कि वह अंसारुल्लाह को पराजित नहीं कर सकते। अब एक ही रास्ता बचा है कि यमन के सारे पक्षों को मान्यता दी जाए और उनके बीच वार्ता करवाई जाए।
इस लेख पर ग़ौर किया जाए तो अंदाज़ा होता है कि अरब दुनिया में अब तुर्की अपनी भूमिका बढ़ा रहा है और सऊदी अरब को घेरने की कोशिश में लग गया है। इसका मतलब यह है कि यमन में अब सऊदी अरब को ईरान के साथ ही तुर्की का भी सामना करना पड़ेगा।
अब सऊदी अरब के सामने तीन विकल्प हैं। या तो वह तुर्की से वार्ता करके सारे विवादों पर समझौता करे, सीरिया और ईरान से अपने संबंधों को सुधारे या फिर इस्राईल से मिलकर अपना एलायंस बनाए और उसके ख़तरनाक परिणामों का सामना करने के लिए तैयार हो जाए। देखना यह है कि सऊदी अरब कौन सा रास्ता चुनता है?
अब्दुल बारी अतवान
अरब जगत के विख्यात लेखक व टीकाकार