इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम इमामत कही जाने वाली मार्गदर्शन की आठवीं कड़ी हैं जिन्हें शहीद होने के बाद ईरान के तूस नामक क्षेत्र में दफ्न किया गया जो अब मशहद नाम से मशहूर है और ईरान के महानगरों में शामिल है। मशहद नगर में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के रौज़े के पर हमेशा श्रद्धालुओं की भीड़ रहती है और पूरी दुनिया से लोग ज़ियारत के लिए मशहद जाते हैं लेकिन अब कोरोना की वजह ज़ियारत का अंदाज़ बदल गया है।
सन 183 हिजरी क़मरी में अपने पिता इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद 35 साल की उम्र में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने लोगों के मार्गदर्शन का ईश्वरीय दायित्व संभाला। 201 हिजरी कमरी तक वे पवित्र नगर मदीना में रहे। उसी साल रणनीति के अतंर्गत अब्बासी शासक मामून ने इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम मदीना से मर्व बुलाया । मर्व ईरान के खुरासान प्रांत का एक नगर है। उस समय वह अब्बासी शासकों की राजधानी था। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की मर्व की यात्रा उनके पावन जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ था। क्योंकि इस यात्रा से इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की आध्यात्मिक महानता और शैक्षिक स्थान अधिक स्पष्ट हो गया। इस प्रकार से कि जब मर्व और खुरासान के लोग इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की महानता और उनके महत्व से अगवत हो गये तो वे निकट से इमाम से मिलने और उनके ज्ञान के अथाह सागर से लाभ उठाने की अभिलाषा करने लगे। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम लगभग दो साल तक मर्व अर्थात प्राचीन खुरासान में रहे। उसके दो साल बाद 203 हिजरी कमरी में अब्बासी शासक मामून ने उन्हें ज़हर दिलवा दिया।
इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के बड़े बेटे थे और ज्ञान, शराफत और पवित्रता में प्रसिद्ध थे। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने इमामत की ज़िम्मेदारी बीस बरसों तक निभायी और इन बीस बरसों में 17 बरस उन्होंने मदीना में और अपने परिजनों के साथ बिताए। 17 वर्षों तक इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने मदीना नगर से इस्लामी समाज का नेतृत्व किया और इस दौरान अरब जगत की सभी हस्तियों पर इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का प्रभाव रहा और वह ज्ञान का केन्द्र बन गये। अब्बासी शासक मामून को इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की लोकप्रियता और उनका ज्ञान का केन्द्र बनना बिल्कुल ही नहीं पसंद था इसी लिए उसने उन्हें अपना उत्तराधिकारी बना दिया जिस पर इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने कहा कि यह जो मुझे उत्तराधिकारी बना दिया गया है उससे मेरी स्थिति में कोई फर्क नहीं पैदा हुआ है क्योंकि मैं मदीना में एसी स्थिति में था कि मेरे खत, इस्लामी जगत के पूरब व पश्चिम में जाते थे। वहां मुझ से अधिक लोकप्रिय और सम्मानित कोई नहीं था और जिसे जो भी ज़रूरत होती वह मुझ से बताता था और मैं जितना हो सकता था लोगों की ज़रूरत पूरी करता था।
बहरहाल अब्बासी शासक मामून के आग्रह की वजह से इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम को विवश हो कर मदीना से मर्व जाना पड़ा। मदीना नगर से मर्व की तरफ यात्रा, वास्तव में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के जीवन की बेहद महत्वपूर्ण घटना है। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम इस्लामी जगत में बहुत अधिक लोकप्रिय थे और उनका काफिला जहां से भी गुज़रता था श्रद्धालुओं की भीड़ एकत्रित हो जाती और लोग व्याकुलता से उन्हें देखने के लिए घंटों रास्ते में उनका इंतेज़ार करते थे। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के रास्ते में आने वाले दसियों नगरों में ईरान का एक नगर नीशापुर भी था। उस काल में ईरान में नीशापुर को ज्ञान विज्ञान की वजह से काफी ख्याति प्राप्त थी यही वजह थी कि इस नगर के बुद्धिजीवी और और पढ़े लिखे लोग भी बहुत बैचैनी से इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का इंतेज़ार कर रहे थे क्योंकि उन्हें पैगम्बरे इस्लाम के परिजनों से ज्ञान से अधिक से अधिक परिचित होने की जिज्ञासा थी। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम जब नीशापुर पहुंचे तो वहां उपस्थिति लोगों ने बहुत उत्साह के साथ उनका स्वागत किया और जब इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम उनके बीच गये तो सब पर सन्नाटा छा गया।
इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने अपनी बात शुरु करते हुए सब से पहले एकेश्वर अर्थात इस्लाम की बुनियादी शिक्षा पर प्रकाश डाला और अपने पूर्वजों के हवाले से कहा कि अल्लाह ने कहा है कि ला इलाहा इल्लल्लाह मेरा क़िला है तो जिसने ला इलाहा इल्लल्लाह कह दिया वह मेरे क़िले मे प्रविष्ट हो गया और जब मेरे क़िले में दाखिल हो गया वह मेरे प्रकोप से बच जाता है। पैग़म्बरे इ्सलाम के परिजनों को अहलेबैत कहा जाता है और अहलेबैत का हर सदस्य, मार्गदर्शन का मशाल होता है। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की आयु 55 बरस थी जिसमें से 20 साल तक उन्होंने इमामत की ज़िम्मेदारी निभायी जो वास्तव में मार्गदर्शन का ईश्वरीय दायित्व है।
इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के ज्ञान इतना था कि वे विभिन्न धर्मों के विद्वानों से शास्त्रार्थ करके सबको हैरत में डाल देते थे रहे थे। ईश्वरीय ग्रंथों के प्रति इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का ज्ञान देखकर सब चकित हो जाते थे। इस्लामी विद्वानों का मानना है कि इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की जो बातें हैं वे एक प्रकार से एकेश्वरवाद और अन्य इस्लामी नियमों के बारे में कुरआन की आयतों की व्याख्या हैं। वास्तव में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के जो उपदेश और उनकी जो शिक्षाएं हैं वही उनकी जीवन शैली भी है । वास्तव में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के कथन , नैतिकता के बारे में पवित्र कुरआन की आयतों का अर्थ हैं और पवित्र कुरआन इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की कथनी, करनी और विचारों में व्यवहारिक हुआ ।
इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के एक अनुयाई का कहना है कि मैंने यह कभी नहीं देखा कि इमाम रज़ा अपनी बातों से कभी किसी को दुख पहुचांए इसी तरह वह कभी भी किसी की बात नहीं काटते थे। जिसकी मदद कर पाते थे करते थे और किसी की उपस्थिति में अपने पैर नहीं फैलाते थे। कभी अपने सेवकों से किसी की बुराई नहीं करते थे। हसंते बस मुस्कराते थे। घर में खाने के लिए जब दस्तरखान बिछता तो घर के सारे लोगों को बुलाते यहां तक कि दरबान और साफ सफाई करने वाले तक को अपने साथ खाने पर बिठाते और सब के सब इमाम के साथ बैठ कर खाना खाते। रातों को कम सोते थे और रात रात भर जाग पर उपासना करते थे। बहुत अधिक रोज़ा रखते थे। हर महीने तीन दिन ज़रूर रोज़ा रखते थे। हमेशा दान दक्षिणा देते थे और रात को छुप कर लोगों की मदद किया करते थे।
इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के ज्ञान , उनके व्यवहार और उनकी जीवन शैली तथा पैग़ंबरे इस्लाम के परिवार में सदस्यता की वजह से इस्लामी जगत में जिस तरह से वह लोकप्रिय थे वह इस्लामी जगत पर शासन करने वाले अब्बासी खलीफा, मामून के लिए चिंता जनक था । इसी के साथ उसके दरबार में मौजूद कुछ दुश्मनों ने भी उसके कान भरे जिसके बाद उसने उन्हें अपने पास तूस बुलाया और दरबार में उत्तराधिकारी का पद दिया लेकिन इससे भी इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की लोकप्रियता कम नहीं हुई इस तरह से मामून की यह योजना भी नाकाम हो गयी। यही नहीं इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के गुणों से जितना जनता अधिक अवगत होने लगी उतना ही उनके बीच यह सवाल उठने लगा कि मामून को शासन का क्या अधिकार है? इस तरह से इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के ज्ञान विज्ञान की बारम्बार तारीफ करने वाला मामून भी सब कुछ भुला कर अपना सिहांसन बचाने के बारे में सोचने लगा और और फिर उसकी एक साज़िश तैयार की और इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम को अपने पास बुला कर बिठाया।
मामून थोड़ी देर टहलता रहा फिर बिना कुछ बोले, सामने ही रखे अंगूरों में कुछ दाने लिए और उन्हें खाया और फिर आगे बढा और इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के माथे को चूमा और कहा कि हे पैगंबरे इस्लाम के पुत्र! मैंने इससे अच्छा अंगूर नहीं खाया। माूमून ने इमाम से भी अंगूर खाने को कहा इमाम ने इन्कार किया लेकिन मामून ने बहुत आग्रह करके उन्हें वह ज़हरीले अंगूर खिला दिये। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने मामून को देखा और मुस्कराने लगी, उसका चेहरा उड़ गया । इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम अंगूर थाल में रख कर उठ गये और तेज़ी से लेकिन लड़खड़ाते हुए अपने घर की तरफ रवाना हो गये। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के एक अनुयाई अबू सल्त ने जब इमाम को इस दशा में देखा तो समझ गये कि मामून ने आखरी तीर चला दिया। कुछ ही समय बात इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की शहादत हो गये। यह इस्लामी कैलेंडर के सन 203 हिजरी के सफर महीने का आखिरी दिन था।
इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम अपने पैतृक नगर मदीना से बहुत दूर परदेस में शहीद हुए थे लेकिन इस परदेस को उनके नाम ने एसा आबाद किया कि आज मशहद नगर में पूरी दुनिया से अहलेबैत के श्रद्धालु इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के रौज़े की ज़ियारत के लिए जाते हैं। यह दुनिया जीवन व मृत्यु के चक्र से ही चलती है लेकिन पैग़ंबरे इस्लाम के परिजनों ने जिस तरह से मानव समाज के कल्याण के लिए बलिदान दिये हैं उसकी मिसाल नहीं मिलती । हम एक बार फिर इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के शहदात दिवस पर हार्दिक संवेदना प्रकट करते हैं।